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असलियत से कैसा घबराना

जातिवार आंकड़े जारी करना जातिवाद नहीं है। यह जाति के भूत को वश में करने का तरीका है। आरक्षण पर रुकी बहस को सार्थक दिशा में ले जाने का जरूरी अवसर भी है बशर्ते हम जाति के भूत से आंखें खोलकर सामना करने को तैयार हों।

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Moti ram

Jul 16, 2015

जातिवार आंकड़े जारी करना जातिवाद नहीं है। यह जाति के भूत को वश में करने का तरीका है। आरक्षण पर रुकी बहस को सार्थक दिशा में ले जाने का जरूरी अवसर भी है बशर्ते हम जाति के भूत से आंखें खोलकर सामना करने को तैयार हों।

योगेंद्र यादव, राजनीतिक विज्ञानी
भारत में जाति का भूत देखते ही अच्छे-अच्छों की मति मारी जाती है। या तो लोग बिल्ली के सामने आंख मूंदे खड़े कबूतर की तरह हो जाते हंै, कड़वी सच्चाई का सामना करने के बजाय यह खुशफहमी पालने लगते हैं की जाति है ही नहीं। या फिर उनकी गति सावन के अंधे की तरह हो जाती है। जिसे हरा ही हरा सूझता है और इसी तर्ज पर कुछ लोगों को हर ओर और हर बात में जाति ही जाति नजर आने लगती है।

सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक-जाति जनगणना के जाति संबंधी आंकड़े सार्वजनिक न करने से उपजी बहस हिंदुस्तानी दिमाग की इसी बीमारी का एक नमूना है। पहली नजर में सरकार की सफाई ठीक लगती है। जनगणना के आंकड़े की छानबीन में अक्सर वक्तलग जाता है। पूरे आंकड़े जारी होने में पहले सात-आठ साल लगते थे तो अब के तकनीकी के जमाने में तीन-चार साल लगते हैं। बेहतर होता, अगर सरकार कोई दिन-तारीख बताती कि कब तक जाति की गिनती को कागज पर अंतिम रूप दे देगी, कब जातिवार आंकड़े सार्वजनिक कर दिए जाएंगे।

सरकार का इरादा नहीं
सरकार की दलील को सुनने पर सरकार की नीयत पर शक होता है। जब अरुण जेटली कहते हैं कि इस सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य गरीबी की जानकारी इकट्ठा करना है तो साफ है कि सरकार टरकाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस या भाजपा किसी भी सरकार की मंशा नहीं थी कि जातिवार जनगणना हो जाए। दोनों सरकारों ने इसे टालने और मोडऩे की भरसक कोशिशें की।

वह तो खैर कहिए कि अचानक संसद में बहस हो गयी और सरकार को जातिवार जनगणना की बात सिद्धांत रूप में माननी पड़ी। लेकिन फिर इसे उलझाने के षडयंत्र रचे गए। जाति की गणना के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी नत्थी कर दिया गया। अब कहा जा रहा है की असली बात तो सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण की ही थी, जाति की गणना की नहीं।

जब रामविलास पासवान जातिगत गणना को गोपनीय रखने के तर्क देने लगते हैं तो सरकार की नीयत पर संदेह और पुष्ट होने लगता है। व्यक्तिगत आंकड़े गोपनीय होते हैं। आप जनगणना से यह नहीं पूछ सकते कि फलां व्यक्ति ने अपनी जाति क्या लिखवाई है, बता दीजिए। पर जाति विषयक कुल तालिकाओं का जोड़-जमा सार्वजनिक करना जरूरी है। जब पासवान कहते हैं कि जातिगत गणना को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता तो लगता है कि सरकार ने इसे दबाने की ठान ली है।

राजनीतिक दलों का डर
जातिवार जनगणना के आंकड़े से सरकार डरती है, बड़े राजनीतिक दल डरते हैं और डरते हैं सामाजिक न्याय के वे पक्षधर जो जाति की तहों के भीतर झांकने से कतराते हैं। इन सबके डर की अपनी-अपनी वजह हैं। जाति के आंकड़ों से कांग्रेस-भाजपा और पूरा राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान डरता है।

उन्हें डर है कि जाति का जिन्न बोतल से बाहर आया तो पिछड़ी जातियों की संख्या सार्वजनिक हो जाएगी और लोगों को आधिकारिक रूप से पता चल जाएगा कि जिस जाति-समुदाय की संख्या इस देश में सबसे ज्यादा है, वह शिक्षा और नौकरियों के अवसर के मामले में कितना पीछे है। उन्हें डर यह है कि जाति और नौकरी के सम्बन्ध पर से पर्दा उठ जाएगा।

राजनीति, अफसरशाही और अर्थव्यवस्था पर अगड़ी जाति के वर्चस्व का राज खुल जाएगा। वैसे इसमे कुछ छिपा नहीं है पर जाति के आंकड़ों के सामने आते ही इस तथ्य की आधिकारिक पुष्टि हो जाएगी। आंकड़े सार्वजनिक होने से शिक्षा और नौकरियों में संख्या के हिसाब से भागीदारी का सवाल पुरजोर तरीके से उठेगा। बराबरी के इसी सवाल को बड़े दल और सरकार कभी खुलकर सामने नहीं आने देना चाहते।

आरक्षण पर सार्थक बहस का जरिया
जाति के आंकड़ों से मंडल और सामाजिक न्याय के पक्षधरों में भी बेचैनी हो सकती है। उन्हें डर है, यह सर्वेक्षण कहीं यह ना दिखा दे कि जाति सामाजिक अन्याय का एक महत्वपूर्ण कारक तो है पर एकमात्र कारक नहीं। ओबीसी की श्रेणी में आने वाली जातियों के बीच शिक्षा और नौकरियों में अवसर के लिहाज से चंद जातियों के वर्चस्व की बात जाति जनगणना के आंकड़ों से आधिकारिक रूप से उजागर हो सकती है।

यह बात भी सामने आ सकती है कि एक ही जाति के बीच वर्ग-भेद और लिंग-भेद भी अवसरों की असमानता का बहुत बड़ा कारक है। इन बातों के उजागर होने के साथ सामाजिक न्याय की राजनीति को उसके पुराने ढर्रे पर चलाए रखना मुश्किल होगा। जातिवार आंकड़े को सार्वजनिक करना जातिवाद नहीं है। यह जाति के भूत को वश में करने का तरीका है।