भाजपा नेताओं ने कड़े बोल बोले तो जदयू ने भी तल्ख़ तेवर दिखाए। लगे हाथों जदयू के राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा ने धमकी दे डाली कि भाजपा की अलग होकर चुनाव लड़ने की योजना है, तो उसे यह कर दिखाना चाहिए।कई भाजपा नेता जदयू से गठबंधन को लेकर असहज दिखते आ रहे हैं। ऐसे में जदयू का आक्रमक रुख दोनों दलों के बीच बढ़ती खाई को कम करने की बजाय और भड़काने में सहायक होती रही है।
विधानसभा के मॉनसून सत्र के दौरान आरजेडी (RJD) की उदासीनता और और सहयोगी कांग्रेस की उससे बढ़ती दूरियां अलग रहस्यों की परिभाषा बयां करने जैसी है। आरजेडी सदन में बड़ा दल होते हुए भी सदन में विभागों पूरक अनुदानों पर चर्चा के दौरान विपक्ष के तेवर नहीं दिखा पा रहा।विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव की लगातार अनुपस्थिति और उससे पूर्व अज्ञात वास को लेकर अलग सवाल उठते आ रहे हैं। इसमें कांग्रेस उसकी सहयोगी कम विरोधी ज्यादा नज़र आती है। सदन के भीतर और बाहर कांग्रेस और आरजेडी के स्टैंड भी एक जैसे कभी नहीं दिख रहे।आरजेडी भाजपा को लेकर नरम तो कांग्रेस कहीं ज्यादा गरम रुख अपनाती है।
इसी बीच बाढ़ राहत के दौर में नीतीश कुमार (NITISH KUMAR) की आरजेडी के मुस्लिम नेताओं अब्दुल बारी सिद्दीकी और और आली अशरफ फातमी से बढ़ती नजदीकियों को लेकर सवाल खड़े होने लग गये।मुख्यमंत्री दरभंगा यात्रा के दौरान इन नेताओं के घर जाकर मिले।आरजेडी की तरफ से कोई सफाई तो नहीं आई,अलबत्ता यह कहा जाने लगा कि यह सब एक रूटीन भेंट का सिलसिला है।तेजस्वी यादव समेत अन्य आरजेडी नेताओं की रांची जाकर लालू यादव से रिम्स में मुलाकात के मायने निकाले जा रहे कि ये सभी लालू से दिशा निर्देश लेने गये थे।
आरजेडी के रुख में भाजपा(BJP) के प्रति बदलाव और तेजस्वी यादव की लगातार अनुपस्थिति पर उठ रहे सवालों के ऊपर गौर करना लाज़िमी हो गया है।कांग्रेस के एक बड़े नेता से बातचीत में इन सवालों के जवाब मिलते दिखे।संकेतों पर गौर करें तो यह सब ऐसे ही नहीं इसके पीछे भावी रणनीती के उथल पुथल का दौर छिपा है।संकेतों पर गौर करें तो तेजस्वी अपने पिता के निर्देशों का पालन करते हुए उन्हें जेल से बाहर लाने का यत्न कर रहे हैं। इसके लिए आरजेडी को किसी तरह भाजपा से हाथ मिलाना और आने वाले दौर मेंघोषित/अघोषित उसके साथ चलना ज़रूरी भी है।भाजपा भी अपनघ बढ़त बनाने के लिए बिहार में नीतीश का नेतृत्व आने वाले विधानसभा चुनाव में स्वीकार करने के मूड में कतई नहीं है।नीतीश और सुशील मोदी की जोड़ी को किनारे कर भाजपा किसी नये और ऐसे नेता को प्रोजेक्ट करने की योजना में है जिसे बहुसंख्यक पिछड़ों खासकर यादवों का भरपूर समर्थन मिल सके।लोकसभा चुनाव से पूर्व अधिक योग्यताएं नहीं होने के बावजूद नित्यानंद राय को पार्टी की कमान सौंपकर फिर उन्हें केंद्रीय गृह राज्य मंत्री बना देना महज़ एक मामूली संयोग भर नहीं बल्कि बड़ी रणनीति का हिस्सा है।समीकरणों को साधने में भाजपा और आरजेडी नेतृत्व भी जुटा बताते हैं।
इससे नीतीश कुमार भी तिलमिला उठे हैं और एक के बाद एक ऐसे ही कारनामों को अंजाम दे रहे जिससे भाजपा असहज हो।केंद्रीय मंत्रीमंडल में कभी शामिल नहीं होने और भाजपा के मातृ संगठनों के नेताओं की जांच के पीछे नीतीश की तिलमिलाहट ही है।संकेतों पर गौर करें तो वह कांग्रेस के साथ गलबहियां करने की दिशा में आगे बढ़ रहे बताए जा रहे और इस मोर्चाबंदी में वह वामदलों तथा अन्य छोटे दलों को भी साध लेना चाहते हैं।
जानकारों का मानना है कि अधिकांश राज्यों में अपने पैर अपने बूते जमा चुकी भाजपा अब बिहार में नीतीश कुमार की बैसाखी फेंक अपने दम पर सत्ता में आने को बेताब है।नेताओं के बोल इसे और स्पष्ट भी कर देते हैं पवन वर्मा और गिरिराज सिंह के बयानों से दोनों ही गठबंधन सयोगियों के बीच तलवारें निकाल लेने के दृश्य दिख जाते हैं।समय ने साथ दिया और कोई बड़ी अनहोनी नहीं हुई तो 2020मे विधानसभा चुनावों के दौरान नये स्वरूप में पुराने सहयोगी आमने सामन जंग लड़ने उतर आ सकते है।