
ज्ञानपीठ सम्मानित और देश के जाने माने साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का पत्रिका के साथ आत्मीय संवाद ( Photo - Patrika )
Patrika Interview: विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य के उजले आकाश का सबसे चमकदार नाम है, उनके यहां शब्द महज अक्षर नहीं, बल्कि जीवन के धड़कते हुए अनुभव बन जाते हैं। 89 वर्ष की उम्र में भी वे नवोदित लेखक की तरह कहते हैं लिखना मेरे लिए सांसों (ऑक्सीजन) की तरह है। रायपुर की गलियों से लेकर भारतीय भाषाओं के हृदय तक उनका लेखन जैसे मिट्टी की गंध में रचा-बसा है।
वे कहते हैं भाषा अगर कहीं सचमुच जीवंत है, वो केवल बोलियों में है। यही वह स्वर है जो आज भी हमें हमारी जड़ों तक लौट जाने को पुकारता है। राज्य की रजत जयंती के अवसर पर जब छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक आत्मा का उत्सव मना रहा है तब विनोद कुमार शुक्ल का यह आत्मीय संवाद हमें स्मृतियों, संघर्षों और बचपन की मासूमियत के बीच से गुजरने का अवसर देता है। वे बताते हैं कि जीवन की सच्ची भाषा कागज पर नहीं, बल्कि लोक की आवाजों में, मां की पुकार में और मजदूरनी की उस नींद में है जो गिट्टी पर भी सुकून से सो जाया करती है। प्रस्तुत है विनोद कुमार शुक्ल से पत्रिका छत्तीसगढ़ के राज्य संपादक गोविंद ठाकरे की विशेष बातचीत…
Q. आपके साहित्य में भाषा की आत्मा और लोक की सादगी गहरे महसूस होती है। क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया के दौर में हमारी भाषा आत्मीयता से दूर जा रही है?
A. भाषा जो है, ताकतवर तरीके से केवल बोली में बची हुई है। भाषा के नाम पर जो आज हिंदी भाषा है, वो पत्रकारिता की भाषा उस तरह की नहीं है, पत्रकारिता की भाषा में तरह-तरह की अन्य भाषाओं के उपयोग होते हैं, ऐसे शब्दों के भी उपयोग होते हैं, जो अपने देश के नहीं हैं। अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग, हिंदी के शब्द जैसे, अखबार में करते हैं। वो अंग्रेजियत से प्रभावित होने के बाद उसकी व्याकरण भी कुछ थोड़ी सी दूसरी हो गई है।
तो वो भाषा, मेरे लेखन की भाषा कभी नहीं हो सकती। और जो लेखन की भाषा है, वो तो सामान्य तौर पर जिसको हिंदी कहा जाता है, वो हिंदी है। क्योंकि उर्दू का प्रभाव हमारे देश में बहुत ज्यादा रहा है और लंबे समय तक रहा है, तो हिंदी ने उर्दू के उन शब्दों को भी स्वीकार कर लिया है। अचानक कभी-कभी वो शब्द भी आ जाते हैं जैसे एतराज, अर्जी ये हिंदी के शब्द की तरह उपयोग होने लगे हैं।
Q. आप जीवन को गहराई से देखने वाले लेखक हैं। क्या आपको लगता है कि संघर्ष और तनाव से ही जीवन का सच्चा अर्थ निकलता है, आज की तनावग्रस्त मानवता के लिए क्या कहना चाहेंगे?
A. जीने में संघर्ष और तनाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, ये तो होगा ही। लेकिन एक सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अमीर से अमीर आदमी भी खुशी के तनाव में जीता है, और वो मजदूर काम करने वाले, वो मजदूरनियां अपने बच्चों के साथ जो काम करती हैं, ट्रक के ऊपर आराम से दो मिनट, दस मिनट की नींद भी ले सकती हैं और वो बहुत सुख की नींद होती है। अब आप तुलना करिए गद्देदार बिस्तर पर नींद का न आना और गिट्टी पर छोटे-छोटे बच्चों के साथ मजदूरनी मां का सो जाना अपने आप में एक बहुत बड़ा अनुभव है।
जिंदगी का… हम अपना सुख ढूंढते रहते हैं, हम अपने सुख से दूर नहीं होते, और अपने दुख से लड़ते रहते हैं। बचपन को अधिक देर तक बचपन रहने नहीं दिया जाता। मैं अंतिम दिनों में क्या सोचता हूं, कल की बात मुझे याद नहीं रहती। मैं चीजों को अपनी स्मृति में टटोल नहीं पाता, कि बीता हुआ मेरा क्या था। स्मृति में टटोलते-टटोलते जैसे ही एक उपलब्धि की तरह मुझे अपना बचपन याद आता है… यह याद आने में सड़क पर चलते हुए बच्चे, और दूसरे बच्चे जिन्हें मैं देखता हूं आते-जाते, मां की गोद में आते-जाते, कुछ बड़े हो गए हैं तो मां की अंगुली पकड़े पैदल आते-जाते देखता हूं। और बस उन्हें देखता रहता हूं। और मुझे बड़ा अच्छा लगता है कि मैं भी अपने माता-पिता की अंगुलियां पकड़कर पहले खड़ा होता था। मैं अपने घर से बाहर होकर, मैं अंदर जागकर अपने नहीं होने को देखता हूं तो भावनाओं का सैलाब फूट पड़ता है।
Q. कोई अपने भीतर के साहित्यकार को कैसे जगा सकता है, क्या आपके आसपास जो साहित्यिक वातावरण रहा है, वही आपके भीतर लेखन के बीज बो गया?
A. पहले मैं अपने परिवार के बारे में कहना चाहूंगा, कि मेरे घर शुरू से लेखन के प्रति आकर्षण रहा है। कुछ लिखना चाहिए इसकी प्रेरणा परिवार था। चचेरे बड़े भाई भी लिखते थे। हरमंतलाल बक्शी, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी ये सब मेरे घर के पास में ही रहते थे। तो ये एक वातावरण था। और सबसे बड़ी बात ये है कि मेरी मां जो थीं, उनका बचपन उस बंगाल में बीता, जिसको आप आज बांग्लादेश कहते हैं।
मां का बचपन जमालपुर नाम की जगह बीता। पद्मा नदी वहां से बिलकुल पास थी। बाबा वहां नहाने जाते थे और नहा कर मंत्रों का जाप करते हुए आते थे। ऐसे ही एक बार घर आने के दौरान, दंगे में उनकी हत्या कर दी गई। वहां दंगे पहले भी होते थे। फिर सारा परिवार अमा और बाकी कानपुर में आकर रहने लगा। अमा का परिवार बड़ा धनी परिवार था। नाना के मर जाने के बाद में सब तितर-बितर हो गया। फिर भी छोटे नाना जो थे, वो भी धनी थे, उनका भी निवास कानपुर में था। उन लोगों का आश्रय नाना के बदले में छोटे नाना से हमारी मां को मिला। और इस सबका अनुभव धीरे-धीरे हम लोगों को होता रहा।
Q. आप अक्सर स्मृतियों के सहारे अतीत में लौटते हैं। क्या लिखना आपके लिए उन्हीं यादों का एक जरिया है?
A. मैंने जिंदगी में, लोगों के व्यवहार के बारे में भी जहां तक मेरी समझ होती थी घर से बाहर निकलते ही, उसकी जानकारी मैं लेता था। लेकिन मेरी एक आदत थी, बाहर जिस तरह कुछ होता था, मुझे उसमें कोई अजीब बात दिखाई देती थी तो मैं घर जाकर ये बात अपनी मां से या परिवार के किसी और से भी करता था, वे मुझे किसी तरह समझा सकें। पहले कंदी वाली आया करती थी। कंदी का बोझ (गठ्ठर), घास के बोझ को कहते हैं। हरी घास के बोझ को कंदी कहते हैं, और धान के बोझ को पेरा बोझ कहते हैं।
तो उस समय की ये स्थिति थी। और उसके बाद में, मुझे वो समय भी याद है जब गांधीजी की मृत्यु हो गई थी। गांधीजी के निधन के बाद में घर में भी और बाहर भी लोग आंसू पोंछते हुए, रोते हुए दिखाई देते थे। मेरे लिए वो बहुत अजीब अनुभव था। मैं बाहर टहल रहा था। और उसके बाद मैं घर के अंदर आया और मां से पूछा मां, मुझे बताओ, बाहर सब रो रहे हैं, तुम भी रो रही हो, रोना बंद करो। उस समय सड़क पर ठेले वाले रहते थे, कार्बाइड का लैंप जलाकर वहां रोशनी करते थे। उस रोशनी में मुझे चांदी का रुपया मिला।
जार्ज पंचम का या किसी का था। वो रुपया लेकर मैं अमा के पास गया। कहा अमा, मुझे लगता है कि ये रुपया चांदी का है, इसका क्या करूं, अमा ने कहा ऐसा करो, इसकी जितनी कंदी मिलती है, वो सारी कंदी सड़क के किनारे दूर तक बिछा दो, ताकि आज, कल, परसों गाय जो हैं उसे खा लेंगी। इस तरह की यादें मुझे बचपन की तरफ लौटा देती हैं। जब कोई पूछता है। लेकिन बिना पूछे मैं उस तरफ लौट नहीं पाता। मैं वर्तमान में ही रह जाता हूं, इसलिए आपके पूछने से फिर मैं लौट गया। ऐसे दूसरों के पूछने पर ही मेरी कोई बात वहां तक पहुंच पाती है।
Q. आपके शब्द गहरे और आत्मिक हैं। ये आपके लिए दुनिया को समझने का तरीका है या खुद को सुनने का, नई पीढ़ी को क्या संदेश देंगे?
A.ज्यादातर मेरे पास में आने वाले, वो तो लेखक से होते हैं। वह मुझसे पूछते हैं कि आप जैसा लिखना चाहते हैं। आप जैसे लिखते और लिखते रहते हैं, यह कैसे होता है। कहां से लाते हैं ये सब चीजें? तो मैंने कहा मुझे कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। मुझे जो अनुभव है, अर्थात जीवन जीने का अनुभव और उम्र का। महत्वपूर्ण है कि तरह-तरह की बातें जो हैं, वह याद दिलाती रहती हैं। कुछ पुरानी होती हैं, लेकिन इसमें मैं हर बार एक नया आदमी बन जाता हूं। विकास देश का भी होता है और इसके लिए शासन है, प्रजातंत्र है।
प्रजातंत्र में चुने हुए मंत्री होते हैं, प्रभारी मंत्री होते हैं, राष्ट्रपति होते हैं। इन सब लोगों को प्रजातांत्रिक तरीके से चुन कर भेजा जाता है। उस तरीके में मेरा भी एक हिस्सा होता है। किसी पार्टी की तरफ से हो यह जरूरी नहीं। वह जो देशहित में होता है, उसकी तरफ से। फिर यह भी लगता है कि आखिर हमारा भविष्य किसके हाथों में जाएगा, तो कभी उस तरफ भी दृष्टि जाती है। इस अजीब स्थिति में, परिस्थितियों में, अचानक मेरे हाथ से वोट निकल जाता है, और वोट बॉक्स में चला जाता है। फिर मुझे लगता है वह तो चला गया। इसे वापस कैसे लाया जाए? फिर मैं उसको वापस नहीं ला सकता।
Updated on:
05 Nov 2025 12:56 pm
Published on:
05 Nov 2025 12:55 pm
बड़ी खबरें
View Allरायपुर
छत्तीसगढ़
ट्रेंडिंग
