बता दें कि छह साल पहले आंदोलन से खड़ी हुई थी आम आदमी पार्टी। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जब पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई तभी से पार्टी में टूट शुरू हो गई। योगेंद्र यादव जैसे थिंक टैंक समेत पार्टी गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रशांत भूषण, प्रो आनंद शर्मा, पंजाब के सांसद धर्मवीर गांधी समेत 50 से अधिक लोगों को या तो पार्टी से निकाल दिया गया या उन्होंने खुद ही पार्टी छोड़ दी। लेकिन एक बात तो तय थी कि सभी के निशाने पर अरविंद केजरीवाल ही रहे। फिर राज्यसभा चुनाव से पहले भी पार्टी को झटका लगा जब अरविंद केजरीवाल ने सुशील गुप्ता को प्रत्याशी बनया तब कुमार विश्वास ने विरोध जताते हुए राजस्थान प्रभारी पद से इस्तीफ दे दिया। इतना ही नहीं वह भी लगातार पार्टी नेतृत्व पर हमलावर रहे। अब उसी कड़ी में संजीव सिंह का पद त्याग भी माना जा रहा है।
प्रस्तुत हैं संजीव से हुई बातचीत के संपादित अंश… प्रश्न- जिस पार्टी को खड़ा किया, पांच साल तक जिसे खून-पीसने से सींचा, पार्टी ने पूर्वांचल अध्यक्ष बनाया फिर अचानक चुनाव के वक्त पद त्याग क्यों?
उत्तर– सवाल सही है, पार्टी में जब आंतरिक लोकतंत्र न रह जाए, किसी की बात ही न सुनी जाए। किसी की राय तक नहीं ली जाए। ऐसे में पद पर बने रहने का औचित्य क्या। लिहाजा पद छोड़ दिया। मुझे पद की कोई लालसा नहीं। पार्टी का कार्यकर्ता रहा जो अब भी रहूंगा।
प्रश्न-क्या इसे उपेक्षा का दंश माना जाए? उत्तर– ये व्यक्तिगत मेरी उपेक्षा का सवाल नहीं है। पार्टी में किसी की बात सुनी नहीं जाती। किसी से बिना कुछ पूछे सारे निर्णय केंद्रीय स्तर पर ले लिए जाते हैं। तो पद पर बने रहने से क्या फायदा। छह साल हो गए पार्टी गठन को, इतने दिन क्या कम होते हैं पार्टी को खड़ा करने के लिए, संगठन तैयार करने के लिए। छह साल में एक प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं मिला। क्यों?
प्रश्न- आखिर लोकसभा चुनाव के वक्त ही ऐसा क्या हो गया? उत्तर- ये पार्टी आंदोलन से खडी हुई थी। छह साल तक पार्टी गठन के वक्त के वसूलों पर चलते हुए तमाम मुद्दों को लेकर आंदोलन किया। कार्यकर्ताओं को एकजुट किया। किस लिए। उसकी कोई वजह तो होनी चाहिए। कार्यकर्ताओं को साथ लेकर इलाके में काम कर रहा हूं। मेरा यही दोष हैं न कि झुलसती गर्मी में बलिया से बनारस तक पदयात्रा निकाली। बीएचयू में छात्र आंदोलन को समर्थन देने जब पार्टी कार्यकर्ता जाते हैं और उन पर जानलेवा हमला होता है, तब भी नेतृत्व चुप्पी साधे बैठा रहता है। वो नेतृत्व जो सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा उपयोग करता है। बात-बात पर ट्वीट करता है।
प्रश्न- आप लगातार छह साल की बात कर रहे पर इन छह सालों में कम से कम यूपी में पार्टी का जनाधार नहीं बन सका? उत्तर- हम (सभी कार्यकर्ता) तो लगातार लगे रहे, आप ( केंद्नीय नेतृत्व) तो एक प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं दे सके। कौन है जिम्मेदार। फिर छह साल बाद जब लोकसभा चुनाव का मौका आया तो आपने कह दिया कि हमारी तैयारी नहीं है इसलिए यूपी में चुनाव नहीं लड़ेंगे। अरे, तैयारी न होने के पीछे कौन जिम्मेदार है। खैर तैयारी नहीं थी, निर्णय हुआ कि चुनाव नहीं लड़ना है तो फिर लालगंज और इलाहाबाद से टिकट क्यों दिया। इस बारे में किसी से कोई बात तो की गई होती। पूर्वांचल का अध्यक्ष मैं था। मुझे भी तीसरे आदमी से पता चले कि फलां को टिकट दे दिया गया है।
प्रश्न- यूपी में पार्टी की तैयारी न होने के लिए आखिर किसे जिम्मेदार मानते हैं?
उत्तर- निःसंदेह पार्टी हाईकमान ही तो जिम्मेदार होगा। पांच साल पहले अरविंद केजरीवाल बनारस से भाजपा प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़े। दो लाख नौ हजार के करीब वोट पाए। क्या फिर लौट के आए। बनारस में चाहे बीएचयू के छात्रों का मसला हो, चाहे गंगा का मसला हो या विश्वनाथ कॉरिडोर का मसला हो। कभी किसी मुद्दे पर बोले। बीएचयू में छात्राओं पर लाठीचार्ज होता है, उस पर क्या आपने जुबान खोली। बनारस क्या यूपी के किसी मुद्दे पर बयान दिया। क्यों नहीं दिया? मेरे जैसे लोग उन्हें क्या जवाब दें जो पूछते हैं कि आपके पैरासूट नेता कहां गायब हो गए। आखिर आप तो दूसरे नंबर पर थे न 2014 के चुनाव में।