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शौर्य और वीरता के प्रतीक हैं गुरु गोविंद सिंह

सामाजिक भेदभाव का खात्म करने में भी है उनका योगदान

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Sunil Sharma

Dec 20, 2017

Shri Guru Gobind Singh Jayanti celebrated in katni

Shri Guru Gobind Singh Jayanti celebrated in katni

- डॉ. नीलम महेन्द्र

"चिड़ियाँ नाल मैं बाज लड़ावाँ
गिदरां नुं मैं शेर बनावाँ
सवा लाख से एक लड़ावाँ
ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ"

सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह द्वारा 17 वीं शताब्दी में कहे गए ये शब्द आज भी सुनने या पढ़ने वाले की आत्मा को चीरते हुए उसके शरीर में एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं। ये केवल शब्द नहीं हैं,शक्ति का पुंज है, एक आग है अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, भय के विरुद्ध, शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध, निहत्थे और बेबसों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध। कल्पना कीजिए उस आत्मविश्वास की जो एक चिडिया को बाज से लड़ा सकता है, उस विश्वास की जो गीदड़ को शेर बना सकता है, उस भरोसे की जिसमें एक अकेला सवा लाख से जीत सकता है। और हम सभी जानते हैं कि उन्होंने जो कहा वो करके भी दिखाया।

मुगलों के जुल्म और अत्याचारों से टूट चुके भारत में एक नई शक्ति का संचार करने के लिए उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में एक सभा का आयोजन किया। हजारों की इस सभा में हाथ में नंगी तलवार लिए भीड़ को ललकारा, " इस सभा में कौन है जो मुझे अपना शीश देगा? " गुरु जी के ये शब्द सुनकर पूरी सभा में से जो पांच लोग अपने भीतर हौसला लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए आगे आए इन्हें गुरु गोविंद सिंह जी ने "पंज प्यारे" का नाम देकर खालसा पंथ की स्थापना की और नारा दिया "वाहे गुरु जी दा खालसा,वाहे गुरु जी दी फतेह"। 'खालसा' यानी की 'शुद्ध , खालिस,पवित्र'।

हर खालसा को गुरु गोविंद सिंह जी ने केश व पगड़ी के साथ एक ऐसी पहचान दी कि कोई भी व्यक्ति सहायता के लिए खालसा को दूर से पहचान कर उससे मदद मांग सके और इतिहास गवाह है कि इसी भारतीय समाज में से 'खालसा' वो बनकर निकला कि आज भी पूरा देश न सिर्फ उनका सम्मान करता है बल्कि भारत भूमि के अनेक युद्धों में उनके द्वारा दिए गए बलिदानों का ॠणी है। सिखों के नाम भारत में वैसे तो अनेकों युद्ध हैं लेकिन अफसोस की बात है कि हमारे देश में बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके द्वारा जीता गया एक ऐसा भी युद्ध है जिसे यूनेस्को द्वारा छापी गई किताब "स्टोरीज़ आफ ब्रेवरी" अर्थात् 'बहादुरी की कहानियाँ ' में शामिल किया गया है। ब्रिटिश शासन काल में सारागढ़ी के किले पर एक बार 12000 अफगानी सिपाहियों ने आक्रमण किया था जिसे 36 सिंह रेजिमेंट के मात्र 21 सिख सिपाहियों ने अपनी वीरता से नाकाम करके एक असम्भव से दिखने वाले काम ? को एक ऐसी सत्य घटना में तब्दील कर दिया कि 12 सितंबर 1897 को होने वाला यह युद्ध विश्व के पांच महानतम युद्धों में शामिल हो गया।

इस दिन गुरु गोविंद सिंह जी के 'खालसा' ने उनकी कही बात चरितार्थ कर दी "सवा लाख के साथ एक लड़ाऊँ"। उन्हें याद किया जाता है उनकी वीरता के लिए,उनके शौर्य के लिए, उस संघर्ष के लिए जो उन्होंने किया इस समाज में व्याप्त ऊँच नीच और जातिवाद को खत्म करने के लिए। धर्म की रक्षा के लिए जो बलिदान उन्होंने दिए, उसकी मिसाल इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती। मात्र नौ वर्ष की आयु में जब औरंगजेब के जुल्म से घबराए कश्मीरी पंडित इनके पिता गुरु श्री तेगबहादुर जी के पास मदद मांगने आए तो वो गुरु गोविन्द सिंह जी ही थे जिन्होंने अपने पिता को उस महान बलिदान के लिए प्रेरित किया था।

इतना ही नहीं इनके दो बड़े पुत्र चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए और दो छोटे पुत्र मात्र 8 और 5 वर्ष की आयु में धर्म की रक्षा करते हुए दीवार में जिंदा चिनवा दिए गए थे। वो इन्हीं की दी शिक्षा थी जो उस अबोध आयु के बालक मुसलमान सूबेदार वजीर खान की कैद में होते हुए भी डरे नहीं और धर्म परिवर्तन के नाम पर अपने दादा की कुर्बानी याद करते हुए बोले कि जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की परवाह भी नहीं की तुम उनके पोतों को मुसलमान बनाने की सोच भी कैसे सकते हो? इन कुर्बानियों ने गुरु गोविंद सिंह जी को और मजबूत बना दिया और 1705 में उन्होंने औरंगजेब को छंद शेरों के रूप में फारसी भाषा में एक पत्र लिखा जिसे "जफरनामा" कहा जाता है।

हालांकि यह पत्र औरंगजेब के लिए था और इसमें उन्होंने औरंगजेब को उसका साम्राज्य नष्ट करने की चेतावनी दी थी लेकिन इसमें जो उपदेश दिए गए हैं उनके आधार पर इसे धार्मिक ग्रंथ के रूप में स्वीकार करते हुए दशम ग्रंथ में शामिल किया है। गुरु गोविंद सिंह जी इतिहास के वो महापुरुष हैं जो किसी रियासत के राजा तो नहीं थे लेकिन अपनी शख्सियत के दम पर लोगों के दिलों पे राज करते थे। उन्होंने इस गुलाम देश के लोगों को सिर उठाकर जीना सिखाया, लोगों को विपत्तियों से लड़ना सिखाया, यह विश्वास दिलाया कि अगर देश आज गुलाम है तो इसका भाग्य हम ही बदल सकते हैं। वो गुरु गोविंद सिंह जी ही थे जिन्होंने अपने भक्तों को एक सैनिक बना दिया, उनकी श्रद्धा और भक्ति शक्ति में बदल दी, जिनके नेतृत्व में इस देश का हर नागरिक एक वीर योद्धा बन गया, सिखों के दसवें एवं आखिरी गुरु की 350 साल पुरानी हर सीख आज भी प्रासंगिक है। उनके बताए पथ पर चलकर जिस देश ने अपना इतिहास बदला आज एक बार फिर से उन्हीं का अनुसरण करके हम अपने देश का भविष्य बदल सकते हैं। आवश्यकता है अपनी आने वाली पीढ़ी को उनके बताए संस्कारों से जोड़ने की।