जुम्मन की लाश को लेने दिन में उसका भाई व मां बुलंदशहर से आ गए थे। एक और दो फरवरी की रात लगभग एक बजे मैं और स्व. विनोद अग्रवाल समाचार लिख कर अपने-अपने अखबारों के दफ्तर से सीधे जिला जेल पहुंच गए थे। उस रात फांसी की तैयारियों के कारण जेल अधीक्षक ने हम दोनों को अंदर जाने से रोक दिया था। मैं जेल के बाहर एक पटिया पर बैठ कर फांसी के क्षणों की कल्पना में डूबा हुआ था। इस बीच रात तीन बजे वहां आयी एक गाड़ी से स्ट्रैचर उतार कर अस्पताल के कर्मचारी अंदर ले जाने लगे थे। भाई ने अपनी बूढी मां से कहा था- जुम्मन की लाश इसी स्ट्रेचर पर बाहर लायी जाएगी। कहा जाता है कि मौत के आने का कोई समय तय नहीं होता लेकिन वहां तो एक-एक मिनट तय था कि ठीक पांच बचे मौत जुम्मन को अपने आगोश में ले लेगी। यही सोच कर ज़मीन पर बैठी बूढी मां फूट- फूट कर कभी रो रही और कभी चुप हो जाती थी। कानून के सामने दोनों मां-बेटे नि:शब्द ही थे। इतने में एक मजिस्ट्रेट और डॉक्टर जेल के अंदर घुसे। जल्लाद मन्नू पहले से ही जेल में सुरक्षा के बीच मौजूद था। मां और भाई से मुलाकात करने की जुम्मन की अंतिम इच्छा भी पूरी करा ली गयी थी।
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सूर्योदय से पहले प्रात: पांच बजते ही जुम्मन को फांसी की तख्ते पर चढ़ा दिया था। जिला जेल के मुख्य गेट के बगल वाले एक गेट से जुम्मन की लाश जब बाहर निकाली गयी तो मैं भी वहां पहुंच गया था। मुझे याद है जेल अधीक्षक उस वक्त वर्दी में थे। मजिस्ट्रेट, डॉक्टर व जल्लाद मन्नू भी पास में खड़े थे। उन्होंने जुम्मन के भाई और मां को बुलवाया और लाश सुपुर्द करने के कागज पर अंगूठा निशानी लगवायी। फिर पूछा – तुम्हारी मेटाडोर कहां हैं, इस डेडबॉडी को कैसे ले जाओगे? उस वक्त भाई व मां रो रहे थे। भाई बोला- मैं और मां रिक्शे से बुलंदशहर से आए हैं। इसी से ले जाएंगे। ये बात सुनकर हम सभी लोग स्तब्ध रह गए थे। स्तब्ध होने की वजह थी, उस परिवार की घोर गरीबी..।
सुबह जेल के अधीक्षक व स्टाफ ने अपनी जेब से भाड़ा चुका कर एक मेटाडोर का इंतजाम किया और जुम्मन की लाश बुलंदशहर भिजवायी थी। जेल नियम के मुताबिक 40- 50 रुपये जेल की ओर से लाश ले जाने के लिए भाड़े के बतौर पेमेंट किए गये थे। आगरा की जिला जेल में मन्नू नामक जल्लाद ने ये फांसी दी थी। इसके बाद 29 साल से आगरा की इस जेल में किसी को फांसी नहीं दी गई है।
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जुम्मन ने अपराध किया था या नहीं ? यह तो भगवान ही जानता होगा लेकिन जेल में जुम्मन की बातचीत सुन जब मैं फांसी की उस घटना को याद करने लगता हूं तो जेहन में यही सवाल उठता है कि काश, उस गरीब के पास इतने पैसे होते कि वह उस ब्लाइंड मर्डर केस में कोई अच्छा वकील कर उस मुकदमे को लड़ता।