बंदना कुमारी देसी मिनी स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के पहलगाम की बैसरन घाटी में हुए आतंकी हमले से ठीक पहले वहां घूमने गए पर्यटक मंगलवार को हुई घटना को शायद कभी न भूल पाएं। बेंगलूरु माहेश्वरी महिला संगठन की अध्यक्ष श्वेता बियाणी 15 महिलाओं की एक टोली के साथ जम्मू-कश्मीर घूमने के लिए 17 […]
बंदना कुमारी
देसी मिनी स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के पहलगाम की बैसरन घाटी में हुए आतंकी हमले से ठीक पहले वहां घूमने गए पर्यटक मंगलवार को हुई घटना को शायद कभी न भूल पाएं। बेंगलूरु माहेश्वरी महिला संगठन की अध्यक्ष श्वेता बियाणी 15 महिलाओं की एक टोली के साथ जम्मू-कश्मीर घूमने के लिए 17 अप्रेल को बेंगलूरु से श्रीनगर पहुंचीं थीं। ये महिलाएं आतंककारी हमले से दो दिन पहले 20 अप्रेल को ठीक उस जगह पर मौजूद थीं, जहां पर्यटकों पर हमला हुआ।आतंकी हमले ने न सिर्फ कश्मीर की खूबसूरती को दागदार किया, बल्कि इन महिलाओं के दिलों में भी डर की एक ठंडी सिहरन छोड़ दी। श्वेता की आवाज में आज भी वो कंपकंपी साफ सुनाई देती है, जब वो बताती हैं, हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम उस घटना के दो दिन पहले ही वहां से निकल चुके थे। शायद हमारे अच्छे कर्मों का फल था, या ऊपरवाले की मेहरबानी, कि हम सब सकुशल बेंगलूरु वापस आ गए। श्वेता कहती हैं कि जब-जब उस जगह की तस्वीर आंखों के सामने आती है, तो हमारी रूह कांप जाती है।संगठन की ओर से आयोजित यात्रा का मकसद था कश्मीर की वादियों में कुछ पल आनंद के बिताना। लाल चौक, मुगल गार्डन और पहलगाम की हसीन वादियां देखने का प्लान था। लेकिन हमले की खबर ने सब कुछ बदल दिया। श्वेता बताती हैं कि 23 अप्रेल को हमें लाल चौक और मुगल गार्डन जाना था, लेकिन सुबह-सुबह हमले की खबर मिलते ही हमारे हाथ-पैर सुन्न पड़ गए। परिजनों और रिश्तेदारों के फोन आने शुरू हो गए। हर कोई हमारी सलामती की खबर लेना चाहता था। हमने फौरन घूमने का प्लान रद्द कर दिया। किसी तरह एयरपोर्ट पहुंचे। हर कदम पर डर साये की तरह साथ था। डर से कश्मीर घूमने की सारी खुशियां खत्म हो चुकी थी।
श्वेता ने बताया कि उनके साथ संगठन की कार्यकारिणी सदस्य बिमला चांडक और सलाहकार कृष्ण डागा भी थीं, जिन्होंने इस यात्रा की पूरी रूपरेखा तैयार की थी। इस समूह में तीन महिलाएं जयपुर, एक पुणे और बाकी बेंगलूरु से थीं। कश्मीर की वादियों में सुकून और खुशी तलाशने निकली इन महिलाओं को नहीं मालूम था कि डर में साए में उन्हें यात्रा छोड़कर बीच में ही लौटना पड़ेगा। ये महिलाएं बुधवार शाम श्रीनगर से बेंगलूरु लौटीं।
श्वेता के मुताबिक पहलगाम की वो जगह, जहां हमला हुआ बेहद असुरक्षित थी। वहां पहुंचने का रास्ता इतना कठिन था कि सिर्फ घोड़े से ही जाया जा सकता था। अगर कोई भागना भी चाहे, तो बिना घोड़े के नीचे उतरना नामुमकिन था। न प्राथमिक उपचार की सुविधा थी, न ही कोई और व्यवस्था।वापस बेंगलूरु लौटने के बाद भी वो डर उनके चेहरों से नहीं उतरा। कश्मीर की खूबसूरती, जिसे वो अपने दिल में समेटने गई थीं, अब उनकी आंखों के सामने बार-बार उस भयावह मंजर को ला रही थी। श्वेता कहती हैं कि जब-जब उस जगह की तस्वीर आंखों के सामने आती है, रूह कांप उठती है। पल भर में कितनों की जिंदगियां खत्म हो गईं, कितने परिवार बिखर गए। 15 महिलाओं की जो यात्रा खुशियों की तलाश में शुरू हुई थी, डर और सबक के साथ खत्म हुई। लेकिन श्वेता और उनकी सहेलियों की सलामती ने उन्हें जिंदगी की कीमत समझा दी। वो कहती हैं, शायद हमारी उम्र बाकी थी और हमारे अच्छे कर्म हमारे साथ थे। श्वेता कहती हैं कि सरकार को चाहिए कि ऐसी जगहों पर पूरी सुरक्षा सुनिश्चित करे, ताकि पर्यटक बिना डर के वहां जा सकें।