वर्तमान में शुष्क क्षेत्रों के लिए दो किस्मों एनए-7 (नीलम) और चक्अइया पर कार्य जारी है।
पाळा आंवला फसल का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है। कम तापमान आते ही पौधे और कलमी भाग को भारी नुकसान होता है। परंतु बीकानेर स्थित आइसीएआर–सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर एरिड हॉर्टिकल्चर ने दो दशक के शोध के बाद ऐसा मॉडल तैयार किया है, जिससे पाळाग्रस्त और शुष्क क्षेत्रों में भी आंवले की सफल खेती संभव हो गई है। वैज्ञानिक डॉ. डी.के. सरोलिया के अनुसार, वर्तमान में शुष्क क्षेत्रों के लिए दो किस्मों एनए-7 (नीलम) और चक्अइया पर कार्य जारी है। इन किस्मों को 10:1 अनुपात में लगाकर बेहतर उत्पादन संभव हुआ है। मॉडल में मिश्रित खेती (इंटरक्रॉपिंग) को मुख्य आधार बनाया गया है।
पाळा: आंवला खेती का प्रमुख खतरा, समाधान सुझाया
दिसंबर से जनवरी के बीच तापमान घटने पर आंवले के ग्राफ्टेड पौधों का कलमी भाग तेजी से प्रभावित होता है। ऐसे क्षेत्रों में आंवला की एकल फसल लेना अधिक जोखिम भरा है। मिश्रित खेती यहां समाधान की कुंजी बन रही है। नवंबर-जनवरी में आंवला से, फरवरी-मार्च में बेर से, इसके अलावा, जमीन में औषधीय घास (लेमन ग्रास, खस, पामारोसा ग्रास) और अश्वगंधा जैसी इंटरक्रॉप को दूसरी फसलों जैसे बीजीय मसाले (जीरा, धनिया आदि ), ग्वार पाठा के साथ उगाने से किसानों को अतिरिक्त आय हो सकती है। इस तकनीक से आंवला की पैदावार और सुरक्षा दोनों बढ़ी है। शोध में यह भी सामने आया कि शुष्क क्षेत्रों में कम जैविक भार होने से पौध संरक्षण रसायनों की आवश्यकता भी कम पड़ती है, जिससे फसल अधिक सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक रहती है।
दो दशक का परिणाम, खेत में बना ‘आंवला मॉडल’ सफल
आइसीएआर-एरिड हॉर्टिकल्चर की टीम डायरेक्टर डॉ. जगदीश राणे, डॉ. एम.के. जाटव और वैज्ञानिक दल ने आर्गेनिक खेती और प्राकृतिक संरक्षण मॉडल पर लगातार शोध किया है। शोध में देशज वनस्पतियों तुंबा, आक, नीम से जैविक फॉर्मूलेशन तैयार किए गए हैं। प्रारंभिक प्रयोगों में थरास्त्र, तुमास्त्र जैसी पारंपरिक मिश्रणों के साथ मिलाकर उपयोग करने पर बेहतर नतीजे पाए गए हैं। आगे इन पर विस्तृत शोध जारी है। शोध के अनुसार, किसानों को मिश्रित फसल मॉडल में इन फसलों से अतिरिक्त आय होती है।