रासायनिक खाद और कीटनाशकों का दुष्प्रभाव खेती की गुणवत्ता, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर देखने को मिल रहा है।
मध्य प्रदेश में किसान यूरिया, डीएपी जैसे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं। उत्पादन बढ़ाने की होड़ में रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है। इसका दीर्घकालिक असर खेती की गुणवत्ता, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर देखने को मिल रहा है। यूरिया में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है, जिससे पौधे तेजी से हरे-भरे होते हैं। लेकिन जब इसे जरूरत से ज्यादा डाला जाता है, तो मिट्टी की संरचना बिगड़ जाती है। इसकी अधिकता से मिट्टी की अम्लता बढ़ती है, लाभकारी सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं और खेत की उपजाऊ शक्ति घटती जाती है।
लगातार यूरिया पर निर्भरता मिट्टी को नशे की लत जैसी स्थिति में ला देती है। डीएपी और फॉस्फेटिक खाद का अत्यधिक उपयोग मिट्टी में पोषक तत्वों का असंतुलन पैदा करता है। इससे जिंक, आयरन जैसे सूक्ष्म तत्त्वों की कमी होने लगती है, जो पौधों के विकास में रुकावट पैदा करते हैं। साथ ही, खेत में एकरूपता समाप्त हो जाती है और उत्पादन घटने लगता है। कीटनाशक शुरू में फसल को कीटों से बचाते हैं, लेकिन बार-बार उपयोग से कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। इससे किसान को बार-बार दवा बदलनी पड़ती है, खर्च बढ़ता है और कीट फिर भी नियंत्रित नहीं होते।
साथ ही, यह रसायन नदियों और जलस्रोतों को दूषित करते हैं और मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालते हैं। खतरे से बचने के लिए सबसे पहले मिट्टी परीक्षण कराकर उसकी वास्तविक जरूरत के अनुसार उर्वरक देना चाहिए। गोबर खाद, वर्मी कम्पोस्ट और नीम आधारित जैविक कीटनाशक जैसे विकल्प अपनाने चाहिए। फसल चक्र और मिश्रित खेती भी भूमि की उर्वरता बनाए रखते हैं। आज जरूरत है कि किसान रासायनिक खेती की निर्भरता को कम करें और टिकाऊ, जैविक और संतुलित खेती की ओर लौटें। तभी मिट्टी, फसल और किसान तीनों की सेहत सुरक्षित रह सकेगी।