Lung Cancer Mutations : क्या आपने कभी सोचा है कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं, वह हमारी जान की दुश्मन भी बन सकती है? एक नए और चौंकाने वाले शोध ने इस बात पर मुहर लगा दी है कि हवा में मौजूद छोटे-छोटे जहरीले कण धूम्रपान न करने वालों में भी फेफड़ों के कैंसर का कारण बन रहे हैं।
Air Pollution and Lung Cancer Mutations : कल्पना कीजिए कि आप हर पल जिस हवा में सांस ले रहे हैं वह धीरे-धीरे आपके अंदर एक जानलेवा बीमारी को पाल रही है। यह कोई डरावनी कहानी नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक सच्चाई है। हाल ही में नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट (NCI) द्वारा किए गए एक शोध ने हमारी नींद उड़ा दी है। इस शोध के मुताबिक हवा में मौजूद छोटे-छोटे जहरीले कण धूम्रपान न करने वालों में भी फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) का कारण बन रहे हैं! जी हां, आपने सही पढ़ा – जो लोग कभी सिगरेट नहीं पीते, वे भी इस खामोश खतरे का शिकार हो रहे हैं।
हम सब जानते हैं कि फेफड़ों का कैंसर (Lung Cancer) कितना घातक है। अमेरिका में यह कैंसर से होने वाली मौतों का सबसे बड़ा कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के आंकड़ों के अनुसार, हर साल जितने लोग पेट, स्तन और प्रोस्टेट कैंसर से मिलाकर मरते हैं उससे कहीं ज्यादा फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) से अपनी जान गंवाते हैं। अब तक माना जाता था कि धूम्रपान इसका मुख्य कारण है, लेकिन दुनिया भर में फेफड़ों के कैंसर के लगभग 10 से 25 प्रतिशत मामले ऐसे लोगों में पाए जाते हैं जिन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया। यह एक बड़ा सवाल था - आखिर इन लोगों को फेफड़ों का कैंसर क्यों हो रहा है?
इसी सवाल का जवाब ढूंढने के लिए NCI की मारिया टेरेसा लैंडी और उनकी टीम ने एक बड़ा शोध किया। उन्होंने चार महाद्वीपों के 28 अलग-अलग जगहों से 871 ऐसे लोगों के फेफड़ों के ट्यूमर का बारीकी से अध्ययन किया, जिन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया था। और नतीजा? बेहद चौंकाने वाला! जिन मरीजों के ट्यूमर की जांच की गई, उनमें से जो लोग ज्यादा प्रदूषित इलाकों में रहते थे, उनके ट्यूमर में उन लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा आनुवंशिक बदलाव (जेनेटिक म्यूटेशन) पाए गए, जो साफ-सुथरी हवा में सांस लेते थे। इतना ही नहीं, इन म्यूटेशन में कुछ ऐसे पैटर्न भी दिखे जो आमतौर पर धूम्रपान करने वालों में पाए जाते हैं। यह शोध 'शर्लक-लंग' नामक एक बड़े प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसका मकसद धूम्रपान न करने वालों में फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) के अज्ञात कारणों को उजागर करना है।
वायु प्रदूषण आज एक ऐसी महामारी बन चुका है जो चुपचाप हमारी जिंदगियों में जहर घोल रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण जंगल की आग, सूखा और अत्यधिक गर्मी जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे प्रदूषण का स्तर और भी खतरनाक होता जा रहा है। अमेरिकन लंग एसोसिएशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की लगभग आधी आबादी खतरनाक स्तर के प्रदूषण में रह रही है, जो पिछले साल के आंकड़ों से काफी ज्यादा है। भारत की बात करें तो, यहां स्थिति और भी गंभीर है। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) अक्सर खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है, जिससे सांस लेना भी दूभर हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वायु प्रदूषण हर साल दुनिया भर में लाखों लोगों की जान लेता है, और यह फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) का दूसरा सबसे बड़ा कारण पहले ही माना जा चुका है।
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉर्ज थर्स्टन, जो दशकों से वायु प्रदूषण के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर शोध कर रहे हैं, इस नए अध्ययन को "पर्यावरण का जासूसी कार्य" बताते हैं। उनका कहना है कि यह शोध हमें यह समझने में मदद करेगा कि कौन से प्रदूषक कण हमारे स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करते हैं।
अध्ययन में एक और चौंकाने वाली बात सामने आई है: वायु प्रदूषण के कारण होने वाले आनुवंशिक उत्परिवर्तन, सेकेंडहैंड तंबाकू के धुएं के संपर्क से होने वाले उत्परिवर्तनों से भी कहीं अधिक थे। प्रोफेसर थर्स्टन तो यहां तक कहते हैं, "मुझे लगता है कि मैं 'द मैट्रिक्स' फिल्म में हूं, और मैंने ही 'लाल गोली' ली है।" उनका मतलब है कि उन्हें इस गंभीर खतरे का एहसास है, जबकि बाकी दुनिया इसे नजरअंदाज कर रही है। वह जोर देते हैं कि जीवाश्म ईंधन से होने वाला प्रदूषण हर पल, हर दिन, रात-दिन हमें घेरे हुए है।
NIH का यह अध्ययन मुख्य रूप से यूरोपीय और पूर्वी एशियाई मूल के रोगियों पर केंद्रित था। लेकिन भविष्य के अध्ययनों में लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रों को भी शामिल करने की योजना है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत जैसे देशों में जहां वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है, ऐसे शोध की बहुत जरूरत है।
अध्ययन में कुछ भौगोलिक अंतर भी सामने आए। उदाहरण के लिए, ताइवान के रोगियों में एक खास जीन उत्परिवर्तन बहुत ज्यादा पाया गया, जिसका संबंध एरिस्टोलोचिक एसिड (Aristolochic acid) नामक एक पौधे-आधारित पदार्थ से था। यह पदार्थ कुछ पारंपरिक दवाओं में इस्तेमाल होता है और इसे पहले से ही मूत्राशय, यकृत और किडनी के कैंसर से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन यह पहला शोध है जो इसे फेफड़ों के कैंसर से जोड़ता है। भारत में भी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हैं, और ऐसे किसी भी पदार्थ के संभावित दुष्प्रभावों पर ध्यान देना जरूरी है।
यह शोध ऐसे समय में आया है जब कई सरकारें जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के प्रभावों पर शोध के लिए फंडिंग कम कर रही हैं। अमेरिका में हाल ही में पारित एक विधेयक उत्सर्जन में कटौती के प्रोत्साहनों को कम कर रहा है और कोयले जैसे जीवाश्म ईधनों को सब्सिडी दे रहा है। ऐसे कदम प्रदूषण की समस्या को और बढ़ाएंगे और अंततः हमारे स्वास्थ्य पर भारी पड़ेंगे।
हमें यह समझना होगा कि वायु प्रदूषण केवल सांस की बीमारियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कैंसर, हृदय रोग, स्ट्रोक और यहां तक कि बच्चों के विकास पर भी बुरा असर डाल रहा है। भारत में प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) के आंकड़ों के अनुसार, भारत के कई शहरों में PM2.5 और PM10 का स्तर सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक रहता है। दिल्ली, कानपुर, वाराणसी, पटना जैसे शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में गिने जाते हैं। यह न केवल हमारी अर्थव्यवस्था पर बोझ डाल रहा है (स्वास्थ्य देखभाल के बढ़ते खर्चों के कारण), बल्कि अनगिनत जिंदगियों को भी निगल रहा है।
जरूरत है कि हम नागरिक के तौर पर जागरूक हों और सरकारों पर दबाव डालें कि वे वायु प्रदूषण को कम करने के लिए ठोस कदम उठाएं। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करना, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना, सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना और कचरा जलाने पर प्रतिबंध लगाना कुछ ऐसे कदम हैं जो हम उठा सकते हैं। अगर हम आज नहीं जागे, तो कल हमारी सांसें ही हमारे लिए मौत का फरमान बन सकती हैं। याद रखिए, यह हवा केवल हवा नहीं, एक 'खामोश कातिल' है।