कितना पतला दुपट्टा लिए हो इतनी सर्दी में सुबह-सुबह की सर्द हवाओं का अहसास नहीं क्या हद है दिसंबर है और लिहाफ़ भी नहीं कोई तबियत बिगाड़ लोगी तो मुझे ही परेशान होना पड़ेगा. नज़्म तुम भी उसी की तरह पागल हो...
बहुत वक़्त के बाद कुछ ऐसी नज़्में आई हैं जो आम जि़ंदगी के आसपास की दुनिया की तस्वीरें हैं। ‘किताब का नाम उसको रखना था’ बेहतरीन नज़मों के एक पहलू में गाँव, मोहल्ला, घर, माँ, पापा, दोस्त, भाई तमाम रिश्तों की नज़्में हैं जो कस्बाई माहौल की हुमकती हुई उम्मीदें और ख्वाबों की तस्वीरें हैं वहीं किताब के दूसरे पहलू में इश्क़ है।
सुधीर आज़ाद ने किताब के पहले लिखा है कि ‘दरअसल यह मेरी पहली किताब होनी थी लेकिन वक़्त ने अपना यही हिस्सा इसके मुक़द्दर में रक्खा था। तो अब आ रही यह किताब।…बहोत दिलचस्प है इस किताब का किताब हो जाना। जैसे एक बड़ी दूर का सफऱ सरीखा नापा है इसने। कभी शोर चुपचाप बयान हो गया। कभी ख़ामोशी नज़्म हो गई। कहीं सुकून तो कहीं बेकऱारी सफ़हों पर नज़्म बनकर बिखर गई। एक मुद्दत गुजऱ जाने के बाद ये मुमकिन हुआ कि यह किताब अब आ रही ह।
वाक़ई सुधीर आज़ाद की नज़्में दरिया की तरह होती हैं जिनमें दिल, दिमाग सब पानी की तरह बहते हैं और कमाल यह भी है कि वे खुद-ब-खुद अपना आकार बना लेती हैं।एहसास कभी एहतियात नहीं बरतते। वो बयान होते हैं और बेतकल्लुफ़ बयान होते हैं। उनकी नज़्मों की तबियत और तासीर भी उसी किस्म की है और इन्हें बहने दिया है किसी दरिये की मानिंद।