IIT Kanpur Pollution Mapping: दिल्ली के बढ़ते वायु प्रदूषण की असली वजह जानने के लिए आईआईटी-कानपुर ने मोबाइल लैब और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सहारा लिया है। सड़क पर चलने वाली अत्याधुनिक प्रयोगशाला और एआई मॉडल मिलकर यह पता लगा रहे हैं कि राजधानी में प्रदूषण कब, कहां और क्यों बढ़ता है।
IIT Kanpur Mobile AI Labs Are Decoding Delhi Air Pollution Hotspots: दिल्ली की हवा दशकों से चर्चा, चिंता और शोध का विषय रही है। सर्दियों में दमघोंटू स्मॉग, गर्मियों में धूल और प्रदूषक गैसें, राजधानी की वायु गुणवत्ता एक जटिल समस्या बन चुकी है। अब तक हुए अधिकतर अध्ययन यह तो बताते रहे हैं कि प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है, लेकिन यह कम स्पष्ट हो पाता था कि किस जगह, किस समय और किस कारण प्रदूषण बढ़ता है। इसी खाली जगह को भरने की कोशिश कर रहा है भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर का एक महत्वाकांक्षी प्रयोग, जिसमें मोबाइल लैब, उन्नत रासायनिक विश्लेषण और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) को एक साथ जोड़ा गया है।
मई और जून 2025 के बीच आईआईटी-कानपुर की एक टीम ने दिल्ली के आनंद विहार और द्वारका में एक खास वाहन तैनात किया। बाहर से यह एक भारी-भरकम वैन लगती है, लेकिन अंदर यह एक पूर्ण विकसित वायुमंडलीय अनुसंधान प्रयोगशाला है। इसे प्रो. सच्चिदानंद त्रिपाठी के नेतृत्व में डिजाइन और विकसित किया गया है, जो आईआईटी-कानपुर के कोटक स्कूल ऑफ सस्टेनेबिलिटी के डीन और ‘एआई सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर सस्टेनेबल सिटीज’ के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं। प्रो. त्रिपाठी के शब्दों में, “यह असल में सड़क पर चलने वाली एक अत्याधुनिक लैब है।” इस मोबाइल लैब की लागत 22 करोड़ रुपये से अधिक है और फिलहाल आईआईटी-कानपुर के पास ऐसी केवल एक ही यूनिट है। इसे निजी और परोपकारी संस्थाओं से मिलने वाले फंड से संचालित किया जा रहा है।
इस मोबाइल लैब में ऐसे उपकरण लगे हैं, जो आम तौर पर केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर की स्थायी प्रयोगशालाओं में ही देखने को मिलते हैं। इसमें सबसे प्रमुख है हाई-रिज़ॉल्यूशन टाइम-ऑफ-फ्लाइट एरोसोल मास स्पेक्ट्रोमीटर (HR-ToF-AMS), जो हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों का लगभग आणविक स्तर तक विश्लेषण करता है। यह बताता है कि PM2.5 जैसे कणों में कितनी मात्रा में ऑर्गेनिक पदार्थ, सल्फेट, नाइट्रेट और अन्य रासायनिक घटक मौजूद हैं।
इसके अलावा वैन में एक रियल-टाइम मेटल मॉनिटर भी है, जो PM2.5 और PM10 में मौजूद 30 से 40 प्रकार की धातुओं,जैसे आयरन, कॉपर, जिंक और सल्फर को अलग-अलग माप सकता है। धातुओं का यह संयोजन प्रदूषण का ‘फिंगरप्रिंट’ बनाता है, जिससे यह समझना आसान हो जाता है कि प्रदूषण सड़क की धूल से आ रहा है, वाहनों से, औद्योगिक गतिविधियों से या फिर दहन (कम्बशन) से।
इसके साथ ही लैब में एथालोमीटर लगे हैं, जो ब्लैक कार्बन को मापते हैं,यह डीज़ल वाहनों और ठोस ईंधन के जलने का प्रमुख संकेतक है। पार्टिकल साइज एनालाइजर सूक्ष्मतम कणों से लेकर मोटी धूल तक पर नजर रखते हैं। ओजोन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी गैसों को मापने के लिए नियामक-स्तर के गैस एनालाइजर मौजूद हैं। मौसम संबंधी सटीक आंकड़े जुटाने के लिए तापमान और नमी मापने वाले उपकरण भी लगाए गए हैं।
आनंद विहार, जो दिल्ली का सबसे व्यस्त और प्रदूषित ट्रैफिक जंक्शन माना जाता है, वहां मोबाइल लैब ने मई-जून के दौरान औसतन 63 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर PM2.5 दर्ज किया, जो सुरक्षित सीमा से काफी अधिक है, वह भी सर्दियों के बाहर। इस प्रदूषण का करीब 56 प्रतिशत हिस्सा ऑर्गेनिक मैटर था। रासायनिक विश्लेषण से यह भी सामने आया कि प्रदूषण के कई स्रोत एक साथ सक्रिय थे। सड़क की धूल का योगदान 34 प्रतिशत था, सल्फर-समृद्ध कणों का 26.9 प्रतिशत और क्लोरीन-समृद्ध उत्सर्जन का 16.7 प्रतिशत।
इसका सीधा अर्थ यह है कि सड़क की धूल और ट्रैफिक से जुड़ा प्रदूषण स्थानीय था, जबकि सल्फर और ऑक्सीकृत कण दूर-दराज के क्षेत्रों से हवाओं के साथ आ रहे थे। उपकरणों ने यह भी दिखाया कि दिन और रात में प्रदूषण के पैटर्न अलग-अलग थे,कुछ गैसें खास घंटों में चरम पर थीं, जबकि अल्ट्रा-फाइन कण रात में जमा हो रहे थे। अधिक नमी के कारण कण तेजी से बड़े हो रहे थे। ब्लैक कार्बन का स्तर कई बार 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ऊपर चला गया, जो डीजल और ठोस ईंधन के जलने की ओर इशारा करता है।
इसके विपरीत, द्वारका में PM2.5 का औसत स्तर लगभग 38 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहा। यहां प्रदूषण की संरचना अलग थी। 80 प्रतिशत से अधिक PM2.5 सेकेंडरी ऑर्गेनिक एरोसोल्स से बना था,यानी ऐसे कण जो सीधे उत्सर्जित नहीं होते, बल्कि हवा में मौजूद गैसों की रासायनिक प्रतिक्रियाओं से बनते हैं। ब्लैक कार्बन का स्तर कम रहा और हवा अपेक्षाकृत ‘बैकग्राउंड’ पर्यावरण को दर्शाती थी। प्रो. त्रिपाठी कहते हैं, “आनंद विहार और द्वारका मिलकर यह दिखाते हैं कि केवल शहर का औसत आंकड़ा देखना भ्रामक हो सकता है। दिल्ली में एक नहीं, कई तरह की प्रदूषण समस्याएँ है, जो इलाके, समय और मौसम के अनुसार बदलती रहती हैं।”
सामान्य वायु गुणवत्ता सेंसर कणों, गैसों और मौसम को माप सकते हैं, लेकिन वे यह नहीं बता पाते कि प्रदूषण कहां से आया। इसी कमी को दूर करने के लिए आईआईटी-कानपुर की टीम ने एक अनोखा तरीका अपनाया। मोबाइल लैब को 10 से 12 दिनों के लिए लो-कॉस्ट सेंसरों के साथ एक ही स्थान पर लगाया जाता है। इस दौरान लैब के अत्याधुनिक उपकरण विस्तृत रासायनिक डेटा जुटाते हैं, जबकि सेंसर सरल संकेत रिकॉर्ड करते हैं। इसके बाद मशीन लर्निंग मॉडल दोनों के बीच संबंध सीखते हैं। प्रो. त्रिपाठी बताते हैं, “एआई यह समझता है कि सेंसर से मिले डेटा और आणविक स्तर के माप के बीच क्या संबंध है।” एक बार मॉडल प्रशिक्षित हो जाने के बाद, केवल सेंसर डेटा के आधार पर ही प्रदूषण के स्रोत पहचाने जा सकते हैं।
यह तरीका पहले लखनऊ में आजमाया जा चुका है, जहां पांच अलग-अलग प्रकार के इलाकों औद्योगिक, व्यावसायिक, ट्रैफिक-भारी, पृष्ठभूमि वन क्षेत्र और नियामक स्टेशन में मॉडल ने 90 प्रतिशत से अधिक सटीकता के साथ वाहनों, धूल, जलने और उद्योग जैसे चार प्रमुख स्रोतों की पहचान की। अब यही मॉडल दिल्ली में लागू किया जा रहा है।
इस तकनीक का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हर जगह महंगी प्रयोगशालाएं लगाने की जरूरत नहीं होगी। प्रशिक्षित सेंसर पूरे शहर में हाइपर-लोकल और रियल-टाइम स्रोत विश्लेषण कर सकते हैं,जो मौजूदा नियामक स्टेशनों से संभव नहीं है।
प्रो. त्रिपाठी के अनुसार, दिल्ली में समाधान की कमी नहीं है, कमी है तो सटीक जानकारी की। “हमें यह जानने की जरूरत है कि कहां कार्रवाई करनी है, कब करनी है और कितनी सीमित लेकिन प्रभावी कार्रवाई पर्याप्त होगी।”
यह परियोजना 2018 से 2022 के बीच हुए रियल-टाइम दिल्ली एयर क्वालिटी एक्सपेरिमेंट पर आधारित है, जिसमें आईआईटी-दिल्ली, आईआईटीएम पुणे, पीआरएल अहमदाबाद और एमआरआईआईएस फरीदाबाद भी शामिल थे। उस अध्ययन से यह सामने आया था कि दिल्ली के सबसे खराब धुंध वाले दिनों में स्थानीय स्तर पर जलने से निकले प्राथमिक कणों की बड़ी भूमिका होती है, और कुछ कण ऐसे रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज़ बनाते हैं जो फेफड़ों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। नया तत्व है,एआई की मदद से बड़े पैमाने पर, तेज और ज्यादा सटीक विश्लेषण।