Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में टिप्पणी की है कि मुकदमों की लागत बढ़ने से गरीबों के लिए न्याय पाना दूभर हो गया है।
Supreme Court: देश में 'न्याय में देरी यानी न्याय से इनकार' की चिंता तो पहले से है लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमेबाजी बेतहाशा महंगी होने पर भी बड़ी चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में टिप्पणी की है कि मुकदमों की लागत बढ़ने से गरीबों के लिए न्याय पाना दूभर हो गया है। कभी कानूनी पेशा सेवा का पेशा माना जाता था जो अब तेजी से व्यावसायीकरण और प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गया है।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने कहा कि वादियों (मुकदमे के पक्षकार) को बड़े वकीलों की फीस के रूप में बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है जबकि किसी खास तारीख पर न तो मामले की प्रगति होती है और न ही पक्षकार को कोई ठोस राहत मिलती है। पक्षकारों को न्याय की गारंटी के बजाय फीस का औचित्य बताने के लिए केवल 'कार्यवाही का रिकॉर्ड' (प्रोसीडिंग) थमा दिया जाता है। ऐसी प्रवृत्ति से संदेश जाता है कि इस अदालत में सुनवाई केवल उन लोगों की होती है जिनके पास संसाधन हैं और जो मुकदमे के परिणाम की अनिश्चितता और वित्तीय भार झेल सकते हैं। वकीलों को अधिक फीस देने में अक्षम लोगों के लिए न्याय के दरवाजे दुर्गम हो जाते हैं।
शीर्ष अदालत ने ये टिप्पणियां एक युवा वकील संचार आनंद की सराहना करते हुए की जिन्होंने फीस की परवाह किए बिना उस वरिष्ठ नागरिक का केस लड़ा जो खुद अपनी पैरवी करना चाहते थे। कोर्ट ने कहा कि युवा वकीलों को गरीबों और जरूरतमंदों को कानूनी सेवाएं देने के लिए स्वेच्छा से आगे आना चाहिए।
बेंच ने कहा कि इस गलत धारणा को तोड़ने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट अमीर लोगों के लिए सुलभ है। कोर्ट ने बार के सदस्यों से आग्रह किया कि किसी भी वर्ग का व्यक्ति अदालत में अपनी शिकायत लेकर आता है तो जिम्मेदार वकीलों को बिना लागत बढ़ाए और देरी किए उनकी सहायता करनी चाहिए। न्याय तक पहुंच आसान बनाना कानूनी पेशे के हर सदस्य की जिम्मेदारी है। इस संदेश का अदालत के पोर्टल और गलियारों पर प्रसार होना चाहिए।