27 सितंबर 1925 में दशहरें के दिन पांच लोगों की बैठक के बाद हिंदूओं के अधिकारों के लिए आरएसएस की नींव रखी गई। जानें कैसा रहा इसके 100 सालों का सफर।
1923 में हिंदुओं के अधिकार की लड़ाई के साथ राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ की नींव रखी गई। नागपुर में मस्जिद के सामने से गणेश विसर्जन की झांकी निकालने पर मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति जताई तो जिलाधिकारी ने झांकी पर रोक लगा दी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मस्जिद के सामने से भजन मंडली के गुजरने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। हिंदुओं ने भी उसी रास्ते से झांकी निकालने का फैसला किया जिसके बाद दंगे भड़क गए। आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार जो उस समय कांग्रेस से जुड़े थे, उन्हें उम्मीद थी कि उनकी पार्टी हिंदुओं के लिए आवाज उठाएगी, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। यहीं से 34 साल हेडगेवार के मन में हिंदुओं के लिए एक मजबूत संगठन शुरु करने के विचार ने जन्म लिया।
हालांकि इस समय तक देश में हिंदू महासभा की शुरुआत हो चुकी थी और हेडगेवार कुछ समय के लिए इससे जुड़े भी लेकिन बाद में हिंदू महासभा से उन्होंने अपने रास्ते अलग कर लिए। हेडगेवार का मानना था कि यह संगठन अपने राजनीतिक लाभ के लिए हिंदूओं के अधिकार से समझौता कर सकता है। ऐसे में हेडगेवार ने एक नए संगठन की शुरुआत करने की सोची जो बिना राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के सिर्फ हिंदूओं के हितों के लिए लड़ सके।
27 सितंबर 1925, विजयादशमी के दिन इसी विचार के साथ हेडगेवार ने अपने घर में पांच लोगों की बैठक बुलाई। इस बैठक में वीर सावरकर के भाई गणेश सावरकर, डॉ. बीएस मुंजे, एलवी परांजपे और बीबी थोलकर शामिल हुए थे। यहीं हेडगेवार ने संघ बनाने के विचार को इन पांच लोगों के सामने रखा और फिर 17 अप्रैल 1926 को इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम दिया गया। यह पांचों साथी शहर में शाखा लगाने लगे, जो कि हफ्ते दो दिन आयोजित होती थी। इसमें एक दिन कसरत की जाती थी और दूसरे दिन देश के मुद्दों पर चर्चा होती थी।
1926 में रामनवमी के दिन संघ ने एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया और स्वयंसेवक कहे जाने वाले इसके सदस्य खाकी शर्ट, खाकी पैंट, खाकी कैप और बूट पहन कर इसमें हिस्सा लेने पहुंचे, जो कि संघ की यूनिफॉर्म थी। महात्मा गांधी से नाराजगी के बावजूद हेडगेवार 1930 में उनके साथ नमक कानून के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा बने। हालांकि अग्रेजों द्वारा संघ पर प्रतिबंध लगाने के डर से उन्होंने आरएसएस के बैनर तले इस आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया लेकिन वह व्यक्तिगत रूप से इस आंदोलन से जुड़े और जेल भी गए।
इस दौरान हेडगेवार 9 महीने तक जेल में रहे और एलवी परांजपे ने संघ की जिम्मेदारी संभाली। जेल से बाहर आने के बाद हेडगेवार ने युवाओं को संघ से जोड़ना शुरु किया। उन्होंने उनसे अपने कॉलेज में शाखा लगाने को कहा और देखते ही देखते संघ महाराष्ट्र से बाहर भी अपनी पकड़ बनाने लगा। सबसे पहले 1930 में वाराणसी में राज्य के बाहर शाखा लगी थी। गोलवलकर वाराणसी यही से शाखा से जुड़े जो कि दूसरे संघप्रमुख रहे थे। इसके बाद देखते ही देखते संघ पूरे देश में अपनी जड़े मजबूत करने लगा।
1947 में देश को आजादी मिली और संघ ने भी आजादी के आंदोलन का हिस्सा रहा। लेकिन 1948 में महात्मा गांधी को गोली लगने पर तत्कालीन सरकार ने संघ पर बैन लगा दिया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी और वह संघ का सदस्य था। उस दौरान संघ के प्रमुख गोलवलकर थे और इस खबर के सामने आते ही वह जान चुके थे कि संघ का मुश्किल दौर शुरु हो चुका है। गांधी की मृत्यु की खबर मिलने पर गोलवलकर ने देशभर में शाखाओं को 13 दिन का शोक रखने और इस दौरान शाखा का संचालन न करने का निर्देश दिया।
30 जनवरी को गांधी को गोली मारी गई और 2 फरवरी को गोलवलकर को गिरफ्तार कर आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन गोलवलकर ने हार नहीं मानी और अपने स्वयंसेवकों को संदेश देकर कहा कि, संदेह के बादल छंट जाएंगे और हम बिल्कुल बेदाग बाहर निकलेंगे। 6 महीने बाद गोलवलकर रिहा हो गए और 11 जुलाई 1949 को संघ पर से भी बैन हटा दिया गया। प्रतिबंध हटने के बाद गोलवलकर ने संघ का प्रसार करने का फैसला लिया और इसके अलग अलग सहयोगी संगठन बनाए।
इसी के तहत जुलाई 1948 में आरएसएस की स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की शुरुआत हुई। इसके बाद 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की गई। इसी साल गोरखपुर में पहला सरस्वती शिशुमंदिर बना। 1966 में विश्व हिंदू परिषद की नींव रखी गई। संघ ने 1951 में बने भारतीय जन संघ को भी समर्थन दिया। 1980 में संघ की विचारधार के साथ देश की सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की शुरुआत की गई। 1973 में गोलवलकर का निधन हुआ लेकिन उससे पहले उन्होंने आरएसएस को एक मजबूत संगठन के तौर पर पूरी तरह से तैयार कर दिया था। गोलवलकर के बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बालासाहब देवरस को संघप्रमुख की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद 1994 में राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया और 2000 में केसी सुदर्शन संघ प्रमुख बने। इनके बाद 2009 ने अब तक डॉ. मोहन भागवत ने संघ प्रमुख की जिम्मेदारी संभाल रहे है।
इन 100 सालों के सफर में संघ ने कई उतार चढ़ाव देखे और उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। संघ पर प्रतिबंध लगा और कांग्रेस की सरकार के दौर में आरएसएस को कड़ी आलोचनाएं झेलनी पड़ी। लेकिन हर मुश्किल और रुकावट को हरा कर संघ इन 100 सालों तक मजबूती से टिका रहा और 5 लोगों की बैठक से शुरु होने वाले इस संगठन से आज करोड़ो की संख्या में लोग जुड़ गए है। संघ वर्तमान में सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के 40 से ज्यादा देशों में फैला हुआ है। पूरे विश्व में इसके 1 करोड़ से भी ज्यादा स्वयंसेवक है। संघ का दावा है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। सिर्फ भारत मे ही हर दिन 83 हजार से अधिक शाखाएं लगाई जाती है।