नई दिल्ली

बेटी ने दूसरे समुदाय में की शादी तो पिता के पक्ष में खड़ा हुआ सुप्रीम कोर्ट, वसीयत पर बड़ा फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने लड़की के दूसरे समुदाय में शादी करने पर पिता के संपत्ति से बेदखल कर देने वाले मामले में सुनवाई की। निचली अदालतों में लड़की को राहत मिलने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपना अलग रुख अपनाया और पिता के पक्ष में फैसला दिया।

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दूसरे समुदाय में शादी के बाद संपत्ति विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ऐसे मामले की सुनवाई की, जिसमें एक लड़की के दूसरे समुदाय में शादी कर लेने पर उसके पिता ने उसे संपत्ति से बेदखल कर दिया। सालों तक यह मामला शांत रहने के बाद जब लड़की ने अपने हक की मांग करने लगी तो ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट से उसे राहत मिली, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के बाद इस केस ने अलग मोड़ ले लिया है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस एहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की बेंच ने की। कोर्ट ने साफ कहा कि वसीयत लिखने वाले की मर्जी को चुनौती नहीं दी जा सकती है।

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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि किसी इंसान की लिखी हुई आखिरी विरासत को बदला नहीं जा सकता है, चाहे उसमें किसी को बेदखल ही क्यों नहीं कर दिया गया हो। अदालत में यह भी कहा गया कि वसीयत के गवाह की गवाही के बाद यह साबित हो जाता है कि वसीयत सही तरीके से लिखी गई है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संपत्ति के बंटवारे में बराबरी या सहानुभूति के सिद्धांत की जगह वसीयत लिखने वाले की अंतिम इच्छा को ही प्राथमिकता दी जाएगी।

क्या था पूरा विवाद?

यह मामला एन.एस. श्रीधरन की संपत्ति से जुड़ा है। उन्होंने 26 मार्च 1988 को अपनी वसीयत लिखी थी, जिसके अगले ही दिन रजिस्टर भी करा दिया गया था। इस वसीयत में श्रीधरन ने अपनी संपत्ति में आठ बच्चों को हकदार बनाया और अपनी एक बेटी शायला जोसेफ को बाहर रखा। शायला ने समुदाय से बाहर शादी की थी, इसी वजह से पिता ने यह फैसला लिया। उसके बाद साल 1990 में जिन बच्चों को वसीयत का हकदार बनाया था, उन्होंने अपनी बहन शायला जोसेफ के संपत्ति में हस्तक्षेप रोकने के लिए केस दायर किया। उस समय शायला ने इस केस का विरोध नहीं किया था, जिस वजह से अदालत ने एकतरफा फैसला सुना दिया था। इसके बाद साल 2011 में शायला जोसेफ अदालत पहुंची और अपने पिता एनएस श्रीधरन की संपत्ति में अपने हिस्से की मांग की। इस पर बाकी भाई-बहनों ने साल 1988 की वसीयत का हवाला दिया। ट्रायल कोर्ट ने बेटी के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत का कहना था कि वसीयत के दोनों गवाहों में से एक ही गवाह जिंदा है और उसने सिर्फ अपने और पिता के हस्ताक्षर की पुष्टि की है, जिससे वसीयत पर सवाल खड़े होते हैं।

अदालत में पेश की गई दलीलें

कोर्ट में शायला जोसेफ के भाई-बहनों का कहना था कि उनके पिता की वसीयत पूरी तरह कानून के अनुसार लिखी गई है। साथ ही वसीयत पर जिनके हस्ताक्षर थे, उसने खुद भी उस पर गवाही दी है। वहीं दूसरी तरफ शायला का कहना था कि गवाह की बातों में फर्क नजर आ रहा है। साथ ही कोर्ट के पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि वसीयत से जुड़ी कानूनी शर्तें पूरी नहीं की गई हैं, इसलिए उन्हें संपत्ति का 1/9वें हिस्सा मिलना चाहिए।

अंतिम फैसला क्या रहा?

जस्टिस चंद्रन ने कहा कि साबित हो चुकी वसीयत में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है। शायला जोसेफ का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। इसी के साथ उन्होंने हाईकोर्ट और ट्रायलकोर्ट के फैसलों को रद किया। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि हम वसीयत लिखने वाले की जगह खुद को नहीं रख सकते हैं और न ही अपने विचार उन पर थोप सकते हैं। अंत में कोर्ट ने शायला द्वारा दायर मुकदमा खारिज कर दिया और भाई-बहनों की अपील स्वीकार कर ली।

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