लगातार बढ़ रहा धरती का तापमान नित नए खतरे की जानकारियां सामने ला रहा है। वैज्ञानिक अब चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले वर्षों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे घनी आबादी वाले देशों में गर्मी से होने वाली मौतें महामारी का रूप ले सकती हैं। एक जर्नल में प्रकाशित ताजा रिपोर्ट में कहा गया […]
लगातार बढ़ रहा धरती का तापमान नित नए खतरे की जानकारियां सामने ला रहा है। वैज्ञानिक अब चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले वर्षों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे घनी आबादी वाले देशों में गर्मी से होने वाली मौतें महामारी का रूप ले सकती हैं। एक जर्नल में प्रकाशित ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया में 2045 तक हर घंटे 46 लोग गर्मी से मर सकते हैं। आंकड़ों की गहराई में जाएं तो चौबीस घंटे में औसतन ग्यारह सौ से अधिक मौतें सिर्फ बढ़ते तापमान की वजह से हो सकती है। यह आंकड़ा तो चौंकाता ही है उसके साथ ही अधिक चौंकाने वाली बात यह भी है कि समय-समय पर गर्म होती धरती के खतरों को लेकर आगाह करने वाली रिपोर्टों पर हम नोटिस तक लेने को तैयार नहीं। वस्तुत: गर्मी की मार अब सिर्फ मौसम बदलाव की बात ही नहीं रही, यह जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन चुकी है। यह रिपोर्ट एक गंभीर तथ्य उजागर करती है कि दक्षिण एशिया में हर साल 2 लाख से अधिक लोग अत्यधिक गर्मी से जान गंवा रहे हैं। गर्मी से जान गंवाने वालों की यह संख्या वर्ष 2045 तक दोगुनी हो सकती है।
अहम सवाल यह है कि इतने भयावह भविष्य की आहट सुनाई देने के बावजूद हम कितने तैयार हैं? भारत की जलवायु नीतियां मोटे दस्तावेजों और अंतरराष्ट्रीय मंचों की बयानबाजी तक ही सीमित रह गईं तो हम शायद उस वक्त कुछ नहीं कर पाएंगे जब हालात और भयावह होंगे। हर साल ग्रीन एनर्जी मिशन, क्लाइमेट एक्शन प्लान और सस्टेनेबल डवलपमेंट जैसी योजनाओं से सरकारों की कुछ कर गुजरने की मंशा तो दिखती है। लेकिन इनसे जुड़ी योजनाओं की रफ्तार फाइलों से बाहर भी उतनी ही तेज है या नहीं, यह देखने वाला कोई नहीं। न शहरों का तापमान घटा, न वायु गुणवत्ता सुधरी। बढ़ती आबादी, कंक्रीट के जंगल और अनियोजित शहरीकरण ने हालात और बदतर कर दिए। चिंता की बात यह भी है कि भारत में अभी भी 70 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है। जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, भूजल स्तर घट रहा है।
इन सबके बीच ग्रीन इंडिया की तस्वीर कागजी हरियाली के माफिक दिखती है। आम जनता को आने वाले खतरे का अहसास तक नहीं कराया जा रहा। न स्कूलों में जलवायु शिक्षा गंभीरता से ली जाती है और न ही शहरों के मास्टर प्लान में 'हीट एक्शन प्लान' को जगह मिलती है। रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण एशिया की हालत इसलिए भी ज्यादा गंभीर है क्योंकि यहां गरीबी, भीड़ और स्वास्थ्य सेवाओं की कमजोरी पहले से मौजूद है। अब केवल वृद्ध ही नहीं, बच्चे, गर्भवती महिलाएं और युवा भी हीट स्ट्रोक का शिकार हो रहे हैं। अब वक्त है कि दिखावे से आगे बढ़कर व्यवहारिक नीतियां बनाई जाएं। हर जिले में हीट-एक्शन क्लिनिक और आपात सेवा की व्यवस्था हो। पेड़ लगाना ही काफी नहीं, उन्हें जीवित रखने की जवाबदेही भी तय हो।