गांव-कस्बों में महिला खिलाडिय़ों के लिए आधारभूत खेल सुविधाओं का विकास, सुरक्षित मैदान, शुरुआती प्रशिक्षण और खेल सामग्री की उपलब्धता को प्राथमिकता दी जाए।
महिला क्रिकेट विश्वकप जीतते ही देश में तालियों की गूंज तेज हो गई। हर जगह 'नारी शक्ति' के जयघोष गूंजने लगे। यही दृश्य कुछ समय बाद फिर दोहराया गया जब भारतीय महिला ब्लाइंड क्रिकेट टीम ने विश्वकप जीतकर इतिहास रचा। अचानक हम सभी को याद आया कि महिलाएं भी खेलती हैं, जीतती हैं और विश्व मंच पर भारत का झंडा ऊंचा करती हैं लेकिन यह जो तालियां हैं, वे अक्सर ट्रॉफियों के साथ ही बजती हैं, उससे पहले या बाद की चुप्पी में लड़कियों का संघर्ष, अभाव और उपेक्षा को दबा दिया जाता है।
इसी चमक-धमक के पीछे एक और सच छिपा है- बैतूल जिले के छोटे से गांव टेमनी का। यहां से तीन युवा लड़कियां फुटबॉल के मैदान में राष्ट्रीय स्तर तक पहुंची हैं। यह कहानी चकाचौंध से दूर, मिट्टी के उन रास्तों की है जहां न फुटबॉल का मैदान होता है, न स्पोट्र्स जूते, न प्रशिक्षक। लेकिन सपने होते हैं- जिद्दी और बेहद मजबूत। टेमनी की लड़कियों की तरह देश के अनगिनत गांवों में कई प्रतिभाएं चुपचाप पसीना बहा रही हैं। महिला फुटबॉल हो, क्रिकेट हो या कोई भी खेल, गांवों में रहने वाली अधिकांश लड़कियों का पहला मुकाबला खेल से कम, सामाजिक नजरों से ज्यादा होता है। मैदान पर जाने से पहले ही उन्हें घर-परिवार की मानसिकता, सुरक्षित ढांचे की कमी और खेल की सुविधाओं के अभाव से जूझना पड़ता है। लड़कियां जब अभ्यास करती हैं तो उन्हें 'स्पोट्र्स इन्फ्रास्ट्रक्चर' कम और 'गांव की जमींदोज जमीन' ज्यादा मिलती है। उनकी कोचिंग इसलिए नहीं पनपती, क्योंकि गांवों में प्रशिक्षकों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है।
समस्या केवल सुविधाओं की कमी तक सीमित नहीं है। चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव, प्रतिभा से ज्यादा 'पहचान' को महत्व और लड़कियों के खेल को 'दूसरी श्रेणी' माना जाना अब भी एक कड़वी सच्चाई है। जरूरत इस बात की है कि खेल को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण बनाया जाना चाहिए। स्कूल स्तर पर लड़कियों को सुविधाएं तभी मिलेंगी जब गांव और कस्बों में खेल को शिक्षा का हिस्सा माना जाएगा। सुधार की दिशा में आवश्यक कदम उठाए जाने जरूरी हैं।
गांव-कस्बों में महिला खिलाडिय़ों के लिए आधारभूत खेल सुविधाओं का विकास, सुरक्षित मैदान, शुरुआती प्रशिक्षण और खेल सामग्री की उपलब्धता को प्राथमिकता दी जाए। कोच की नियुक्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही हो। एक राष्ट्रीय ऑनलाइन प्लेटफॉर्म होना चाहिए, जहां खिलाड़ी अपनी समस्याएं, आवश्यकताएं और शिकायतें सीधे सरकार या खेल प्राधिकरण तक पहुंचा सकें। खेल, लोकतंत्र को मजबूत करेगा और चयन व सहायता की प्रक्रिया को अधिक निष्पक्ष बनाएगा। महिला खेल को लेकर देश में बहस अब सिर्फ उत्साह तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे जिम्मेदारी और नीति सुधार की ओर बढऩा होगा।