हमें विकसित राष्ट्रों की पुलिस की कार्यप्रणाली से सबक लेना चाहिए कि किस तरह शालीन और कानून के दायरे में रहते हुए वैज्ञानिक अनुसंधान से वे अपराधों से निपटती हैं।
उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले की एक घटना ने कानून और न्याय की बुनियादी समझ पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ के आरोप में चार नाबालिग लड़कों की माताओं को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाना सिर्फ एक स्थानीय घटना नहीं, बल्कि यह उस सोच को उजागर करता है, जिसमें सबक सिखाने के नाम पर न्याय के मूल सिद्धांतों से समझौता कर लिया जाता है।
यह निर्विवाद है कि किसी भी तरह की छेड़छाड़, अश्लील टिप्पणी या उत्पीडऩ गलत है और समाज को ऐसे व्यवहार के प्रति सख्त रुख अपनाना चाहिए। पीडि़त लड़की की सुरक्षा और सम्मान सर्वोपरि है, लेकिन सवाल यह है कि क्या एक व्यक्ति के कृत्य की सजा किसी दूसरे को दी जा सकती है? इस मामले में आरोप नाबालिग लड़कों पर है। गलत परवरिश को जिम्मेदार मानते हुए उनकी माताओं को गिरफ्तार करना न्याय की अवधारणा को ही पलट देता है। माता-पिता की भूमिका बच्चों के पालन-पोषण और संस्कारों में अहम होती है, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन नैतिक जिम्मेदारी और कानूनी दायित्व को एक मान लेना बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। अगर यह तर्क मान लिया जाए कि बच्चों के गलत आचरण के लिए माता-पिता को दंडित किया जा सकता है, तो फिर समाज में शायद ही कोई सुरक्षित बचे। कई बार ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं कि आरोपी भाग जाते हैं तो पुलिस आरोपियों के अभिभावकों को ही पकड़ कर थाने में ले आती है, उन्हें प्रताडि़त कर आरोपियों को समर्पण के लिए विवश करती है। दुनिया की किसी अदालत और कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है कि किसी के किए की सजा किसी और को दी जाए। यह घोर अन्यायपूर्ण होने के साथ ही आम आदमी के मानवाधिकारों का कड़ा उल्लंघन भी है। देश की अदालतें ऐसे मामलों में संज्ञान लेती रही हैं, उम्मीद है कि इस मामले में भी ऐसा होगा। लेकिन स्थिति पूरी तरह बेहतर हो जाए, इसके लिए पुलिस को जिम्मेदारी लेनी होगी। उसे यह समझना होगा कि किसी के अपराध की सजा किसी दूसरे को देने की उसकी प्रवृत्ति से किसी का भला नहीं होने वाला। वैसे भी नाबालिगों से जुड़े मामलों में संवेदनशीलता, सुधार और मार्गदर्शन की जरूरत होती है। ऐसे मामलों का समाधान काउंसलिंग और जवाबदेही की स्पष्ट प्रक्रिया से निकलता है।
हमें विकसित राष्ट्रों की पुलिस की कार्यप्रणाली से सबक लेना चाहिए कि किस तरह शालीन और कानून के दायरे में रहते हुए वैज्ञानिक अनुसंधान से वे अपराधों से निपटती हैं। डंडे, जोर जबरदस्ती और मनमानी की राह से तो हमारी पुलिस की छवि बिगड़ी रहेगी। छवि खराब होने से समाज में उसकी स्वीकारोक्ति नहीं होगी। इसमें कानून-व्यवस्था, अनुसंधान, धरपकड़ और अपराधों की रोकथाम में उसे समाज की कोई मदद नहीं मिलेगी, जो अंतत: उसका खुद का और देश का नुकसान ही है।