निर्भया कांड के बाद बलात्कार कानून में सख्त प्रावधान के साथ ही 'फास्ट ट्रेक कोर्ट' की बात भी हुई थी। कुछ मामलों में त्वरित न्याय भी हुआ, पर वह अपवाद के श्रेणी से आगे नहीं बढ़ पाया। अजमेर में 100 से अधिक लड़कियों की अश्लील तस्वीरें खींच कर उनका यौन शोषण करने संबंधी 1992 के कांड में विशेष अदालत का फैसला 32 साल बाद अब 2024 में आया है, जिसमें जुर्माना भी लगाते हुए छह दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है।
राज कुमार सिंह
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
कोलकाता कांड के बाद देश फिर उद्वेलित है। एक ट्रेनी डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या के विरोध में बंगाल ही नहीं, देश के तमाम राज्यों में कैंडल मार्च और प्रदर्शन हो रहे हैं। हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टरों समेत स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मियों की सुरक्षा संबंधी सुझावों के लिए नेशनल टास्क फोर्स का गठन करते हुए व्यवस्था पर सख्त टिप्पणियां की हैं। ऐसा जन उद्वेलन 2012 के बाद पहली बार देखने में आ रहा है। तब देश की राजधानी दिल्ली में एक लड़की की सामूहिक बलात्कार के बाद बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। निर्भया कांड के नाम से चर्चित उस घटना ने देश को हिला दिया था। निर्भया को न्याय और दोषियों को दंड की मांग करते हुए दिल्ली ही नहीं, देश के दूरदराज हिस्सों में भी विरोध प्रदर्शन और कैंडल मार्च हुए। उस जन दबाव का परिणाम बलात्कार कानून में सख्त प्रावधानों के रूप में सामने आया, लेकिन दावा नहीं किया जा सकता कि उससे हालात सुधरे।
यह समझना मुश्किल नहीं कि हमारे भ्रष्ट पुलिस तंत्र के हाथ जिस तरह असरदार अपराधी तक पहुंचने में छोटे साबित होते हैं, उसके चलते उससे सिर्फ शरीफ आदमी ही डरता है। कोलकाता बलात्कार कांड में ही देख लें। ऐसे जघन्य अपराध के बाद भी रिपोर्ट दर्ज कराने तक में संबंधित मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के प्रशासन तंत्र की सुस्ती उसे संदेह के दायरे में ला देती है तो इस्तीफे के बाद उसी प्रिंसिपल की किसी दूसरे कॉलेज में आनन-फानन में नियुक्ति राज्य सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर देती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इन दोनों मामलों पर तल्ख टिप्पणी करते हुए विरोध प्रदर्शनों पर बल प्रयोग से बचने की नसीहत दी है। जाहिर है, कोलकाता के इस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में जो कुछ हुआ, वह देश और समाज को शर्मसार करनेवाला है, लेकिन गंभीर दृष्टि-दोष के शिकार हमारे राजनेता हैं कि राजनीति से परे कुछ भी नहीं देख पाते। कोलकाता कांड निश्चय ही ममता बनर्जी सरकार की नाकामी का प्रमाण है, लेकिन बलात्कार की घटनाएं एक राज्य तक सीमित नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए बलात्कार कांड में बताया गया कि आरोपी विपक्षी दल सपा का नेता है, पर यह नहीं बताया गया कि बीएचयू में बलात्कार के आरोपी किस दल के लाड़ले थे? हाल ही में महाराष्ट्र के बदलापुर में स्कूल कर्मचारी द्वारा ही दो मासूम बच्चियों के यौन उत्पीडऩ की घटना सामने आई। वहां भी सरकारी तंत्र का रवैया अपराधियों के बजाय विरोध प्रदर्शनकारियों पर सख्ती का नजर आया है।
विरोध में प्रदर्शन करने वालों पर पुलिस जितनी जोर आजमाइश करती है या फिर अपने आकाओं को खुश रखने में जितनी मशक्कत करती है, उसका 10 प्रतिशत भी अगर कानून-व्यवस्था और जन सुरक्षा सुनिश्चित करने में करे तो ऐसी घटनाओं में काफी कमी तो निश्चय ही लाई जा सकती है। निर्भया कांड के बाद बलात्कार कानून में सख्त प्रावधान के साथ ही 'फास्ट ट्रेक कोर्ट' की बात भी हुई थी। कुछ मामलों में त्वरित न्याय भी हुआ, पर वह अपवाद के श्रेणी से आगे नहीं बढ़ पाया। अजमेर में 100 से अधिक लड़कियों की अश्लील तस्वीरें खींच कर उनका यौन शोषण करने संबंधी 1992 के कांड में विशेष अदालत का फैसला 32 साल बाद अब 2024 में आया है, जिसमें जुर्माना भी लगाते हुए छह दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। जाहिर है, इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का विकल्प भी होगा ही। यानी अंतिम निर्णय के लिए अंतहीन प्रतीक्षा? ऐसे में यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि 'विलंबित न्याय' को 'न्याय से इनकार' मानने वाली अवधारणा के मद्देनजर क्या हमारी व्यवस्था पीडि़तों को न्याय और दोषियों को दंड दे भी पाती है?