कमजोर रुपए के नफा और नुकसान दोनों होने के कारण अर्थशास्त्रियों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, पर भारतीय परिवार इस गिरावट की कठोर सच्चाई से बच नहीं सकते।
- राकेश हरि पाठक, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार
वर्ष 2025 खत्म हो रहा है और भारतीय रुपए की यात्रा के बारे में ऐसा कुछ खास नहीं है, जिसे गर्व के साथ याद किया जाए। उलटे, क्रिसमस से ठीक एक सप्ताह पहले रुपए की गिरावट अपने चरम पर पहुंच गई और डॉलर के मुकाबले यह 91 रुपए से भी नीचे फिसल गया। बाद में भारतीय रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप से इसमें कुछ मामूली सुधार हो सका, लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि रुपया वैश्विक स्तर पर सबसे कमजोर प्रदर्शन करने वाली मुद्राओं में शामिल रहा है। आने वाले एक-दो वर्षों में यह 100 रुपए प्रति डॉलर का स्तर छू सकता है।
अर्थशास्त्रियों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, पर भारतीय परिवार इस गिरावट की कठोर सच्चाई से बच नहीं सकते। उदाहरण के लिए, यदि कोई छात्र विदेश में पढ़ाई के लिए सालाना ५० हजार डॉलर खर्च करता है तो डॉलर 90 रुपए होने पर परिवार को अब करीब 45 लाख रुपए सालाना चुकाने पड़ते हैं, जबकि डॉलर 80 रुपए के समय यही खर्च 40 लाख रुपए था यानी खर्च में 12-13 प्रतिशत की बढ़ोतरी। यही 12-13 प्रतिशत की अतिरिक्त मार तब भी पड़ती है, जब छात्र डॉलर में शिक्षा ऋण लेता है व ब्याज चुकाता है। रुपए की कमजोरी का पहला असर परिवहन लागत और रोजमर्रा की घरेलू वस्तुओं पर दिखता है। भारत कच्चे तेल के मामले में लगभग 90 प्रतिशत तक आयात पर निर्भर है और ये आयात मुख्यत: डॉलर में है। इसका सीधा असर पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत फिलहाल 60-65 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है, जो पिछले वर्ष की औसत कीमत से 10-15 डॉलर कम है। इसलिए अभी इसका पूरा असर दिखाई नहीं दे रहा, लेकिन 1980 के दशक के तेल संकट या बाद के वर्षों में कीमतों के तेज उछाल को लोग आज भी नहीं भूले हैं। भारत दुनिया के सबसे बड़े कच्चे तेल आयातकों में है। यदि सरकार ने रुपए में व्यापार के तहत रूस से रियायती तेल खरीदने के विकल्प को सीमित कर दिया और अमरीका व खाड़ी देशों जैसे अंतरराष्ट्रीय बाजारों पर अधिक निर्भरता बढ़ी तो मांग-आपूर्ति का दबाव कीमतों को प्रभावित करेगा। पेट्रोल, डीजल और ऊर्जा क्षेत्र पर बढ़ते दबाव से परिवहन लागत बढ़ेगी, जिससे फल-सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुएं भी महंगी हो सकती हैं। यही कहानी आयातित लैपटॉप, स्मार्टफोन और दवाओं की भी है।
सरल शब्दों में कहें तो रुपए के कमजोर होने से भारत का आयात महंगा हो जाता है, क्योंकि वैश्विक व्यापार में डॉलर सबसे प्रभावशाली मुद्रा है- खासकर पेट्रोलियम, कमोडिटी, सोना, तांबा जैसी वस्तुओं के मामले में। हालांकि कमजोर रुपया पूरी तरह नकारात्मक भी नहीं है। इससे भारतीय निर्यात अधिक प्रतिस्पर्धी बनता है और कई क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था को लाभ मिलता है। अल्पकाल में रुपए की गिरावट से महंगाई का दबाव, आयात-निर्भर उद्योगों के मुनाफे और शेयर बाजार के प्रतिफल पर असर पड़ सकता है, लेकिन इसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। भारत ने 1980 के दशक तक स्थिर विनिमय दर नीति अपनाई हुई थी। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद यह आंशिक लचीली व्यवस्था में बदली और आरबीआइ की भूमिका रुपए की 'रक्षा' से 'मार्गदर्शन' तक सीमित हो गई। 2025 के दौरान विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से बड़े पैमाने पर पूंजी निकाली, वहीं प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी कमी आई। अमरीका के साथ लंबित व्यापार विवाद, भारत पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ और रूस से तेल आयात को लेकर लगाए गए दंडात्मक दबाव ने भी रुपए पर अतिरिक्त बोझ डाला।
कई देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर में रखते हैं और भारत के पास अभी करीब 690 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। व्यापार घाटे के बावजूद भारत विदेशों में काम करने वाले अपने नागरिकों से डॉलर में मिलने वाले प्रेषण (रेमिटेंस) के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में है। वर्ष 2024-25 में यह राशि 135.46 अरब डॉलर रही। यदि 2025 में रुपए में छह प्रतिशत से अधिक की गिरावट को देखें तो इसका मतलब यह है कि यह राशि प्राप्त करने वाले भारतीय परिवारों की आमदनी रुपए में कहीं अधिक बढ़ जाती है। दीर्घकाल में निर्यात में बढ़ोतरी, उत्पादकता में सुधार और अन्य आर्थिक कारक समग्र अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी सिद्ध होंगे। 'आत्मनिर्भर भारत' का लक्ष्य रामबाण साबित हो सकता है। निर्यातोन्मुख और मजबूत घरेलू अर्थव्यवस्था देश को सशक्त बनाएगी और उम्मीद है कि इसके सकारात्मक नतीजे जल्द ही सामने आएंगे।