सोशल मीडिया कंपनियां अक्सर यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बचने का रास्ता खोज लेती हैं कि वह कंटेंट जनरेट नहीं करतीं बल्कि, सिर्फ मंच उपलब्ध कराती हैं।
सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री से निपटने के तरीकों पर काफी समय से दुनियाभर में माथापच्ची हो रही है, लेकिन कोई ऐसा सर्वमान्य रास्ता नहीं मिल पा रहा है जिससे 'सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे'। ऐसी ही एक सामग्री के खिलाफ सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अश्लील, आपत्तिजनक और अवैध कंटेंट पर नजर रखने के लिए स्वतंत्र नियामक बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि जवाबदेही तय होनी चाहिए। प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह भी माना कि सोशल मीडिया संस्थानों के स्वनियमन का मॉडल संतोषजनक नहीं है।
सोशल मीडिया कंपनियां अक्सर यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बचने का रास्ता खोज लेती हैं कि वह कंटेंट जनरेट नहीं करतीं बल्कि, सिर्फ मंच उपलब्ध कराती हैं। यह सच है, लेकिन हकीकत यह भी है कि विवादित कंटेंट को प्रमोट करने में अपने एल्गोरिदम का इस्तेमाल कर मुनाफा कमाने की होड़ में ये कंपनियां पूरी ताकत लगा रही हैं। विवाद की स्थिति में सरकार का आइटी मंत्रालय जरूर पोस्ट हटाने का निर्देश देता है, लेकिन इस पर अक्सर राजनीति प्रेरित होने के आरोप भी लगते हैं। सोशल मीडिया को जिम्मेदार बनाने की माथापच्ची सिर्फ भारत में ही नहीं है। भारत से पहले इस समस्या से जूझते देशों ने कुछ पहल की है, जिनके अनुभवों से हमें फायदा हो सकता है। यूरोपीय संघ का 'डिजिटल सर्विस एक्ट' सोशल मीडिया कंपनियों को यह बताने पर मजबूर करता है कि उनका एल्गोरिदम किस तरह के कंटेंट को वायरल कर रहा है और क्यों?
ऑस्ट्रेलिया में ई-सेफ्टी कमिश्नर नियुक्त होते हैं, जिनपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। जर्मनी ने नियमों के उल्लंघन पर सोशल मीडिया कंपनियों पर उनके टर्नओवर के आधार पर भारी जुर्माने का प्रावधान किया है। भारत में विवादित पोस्ट हटाने या सबसे पहले कंटेंट भेजने वाले का पता लगाने पर ज्यादा जोर है। यह व्यवस्था एक तरह से सरकार और सोशल मीडिया कंपनी दोनों के अनुकूल है।सुप्रीम कोर्ट का स्वतंत्र नियामक बनाने का सुझाव काबिले गौर है। लेकिन क्या कोई स्वतंत्र नियामक आपत्तिजनक सामग्री को वायरल होने से पहले रोक सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने कंटेंट के पूर्वावलोकन का विकल्प भी दिया है। यदि ऐसा संभव है तो उसका क्या मैकेनिज्म हो सकता है, यह अगला विचारणीय प्रश्न है। पूर्वावलोकन की व्यवस्था का क्या दुरुपयोग नहीं होगा? सिनेमा के मामले में फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कार्यप्रणाली सामने हैं जो अक्सर विवादों में रहती है। स्वतंत्र नियामक विवादरहित होंगे, इसकी क्या गारंटी है? सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है और हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उच्छृंखलता में बदलते देख चुप नहीं रह सकते। अब सरकार क्या रास्ता निकालती है- इस पर नजर रहेगी।