सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने विवाद को कानूनी रूप से समाप्त करने का प्रयास किया, लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक बड़े हिस्से में अभी भी 6 दिसंबर को अन्याय और नुकसान के रूप में प्रचारित कर नई पीढ़ियों को इससे जोड़े रखने की कोशिश की जा रही है
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीय इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जिसने देश की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया। सुप्रीम कोर्ट के 2019 के ऐतिहासिक फैसले- जिसके तहत राम मंदिर निर्माण को सुनिश्चित किया गया और मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन आवंटित की गई-के बावजूद इस घटना के 33 वर्ष बाद, 6 दिसंबर 2025 को, दोनों पक्षों द्वारा इस दिन को स्मरण करने की घटनाएं जारी रहीं। मुस्लिम समुदाय ने इसे 'ब्लैक डे' के रूप में मनाया, जबकि हिंदू संगठनों ने 'शौर्य दिवस' के रूप में। यह निरंतरता भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुके ध्रुवीकरण को उजागर करती है, जो राजनीतिक लाभ के लिए सामाजिक असुरक्षा को बढ़ावा देती है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने विवाद को कानूनी रूप से समाप्त करने का प्रयास किया, लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक बड़े हिस्से में अभी भी 6 दिसंबर को अन्याय और नुकसान के रूप में प्रचारित कर नई पीढ़ियों को इससे जोड़े रखने की कोशिश की जा रही है। 2025 में, इस दिन कई स्थानों पर जहां तनाव को बढ़ावा देने वाली घटनाएं हुईं, वहीं शांतिपूर्ण स्मृति सभाएं, विरोध प्रदर्शन और धार्मिक आयोजन हुए, जो मुख्य रूप से बाबरी विध्वंस के लिए शोक और मुस्लिम समाज की एकता को बढ़ावा देने पर केंद्रित थे। यहां कुछ प्रमुख घटनाओं के उल्लेख से आप इनके असर और तासीर को समझ सकते हैं:
हालांकि इन घटनाओं और आयोजनों के दौरान कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के कारण शांतिभंग की घटनाएं नहीं हुईं, लेकिन इनसे पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानूनी समाधान दिये जाने के बावजूद कैसे मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को भड़काए रखने के प्रयास किये जा रहे हैं।
हिंदू पक्ष ने इस दिन को 'शौर्य दिवस' के रूप में मनाया, मुख्य रूप से राम जन्मभूमि आंदोलन के कारसेवकों को श्रद्धांजलि देकर। ये आयोजन ज्यादातर भाजपा की सोशल मीडिया गतिविधियों तक सीमित रहे, जहां विभिन्न राज्य इकाइयों (जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, आदि) ने वीडियो मोंटाज और पोस्ट साझा कर आंदोलन के बलिदान को याद किया और हिंदू गौरव का संदेश दिया। कुछ स्थानों पर हवन-पूजन, सुंदरकांड पाठ इत्यादि भी हुए, जैसे भदोही और औरैया में, लेकिन ये बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रचार का हिस्सा लगे। राजस्थान में सरकार ने स्कूलों में शौर्य दिवस मनाने का आदेश दिया था, जिसका मुस्लिम संगठनों ने कड़ा विरोध किया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक मील का पत्थर था, फिर भी 6 दिसंबर की स्मृतियां निम्न कारणों से समाज, राजनीति और भविष्य के लिए चिंताजनक हैं:
1. इनसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलता है, जिन्हें वोट बैंक की राजनीति के कारण अलग-अलग राजनीतिक गुटों द्वारा लगातार शह दी जा रही है।
2. इनके माध्यम से जहां विपक्षी दल मुस्लिम एकीकरण और वोट बैंक की एकजुटता का प्रयास करते हैं, वहीं भाजपा के लिए हिंदुत्व एजेंडा को जीवित रखने का आधार तैयार होता है।
3. क्षेत्रीय राजनीति में तनाव बढ़ेगा — जैसे बंगाल में बाबरी मस्जिद प्रतिकृति की नींव रखना टीएमसी और भाजपा के बीच विवाद और संघर्ष को और गहरा बना सकता है।
4. सामाजिक तनाव बढ़ने का खतरा भी रहेगा, जो कि पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में स्पष्ट दिखा भी।
5. संवेदनशील इलाकों में हिंसा की आशंका बनी रहने से आर्थिक स्थिरता और निवेश पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
6. कानूनी चुनौतियां भी बढ़ती हैं। खासकर इनके माध्यम से कहीं न कहीं संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता और सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना पर भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
7. अगर दोनों पक्षों द्वारा इस तरह के आयोजन किये जाते रहे, तो भविष्य में काशी-मथुरा जैसे नए विवादों के फिर से सिर उठाने की पूरी आशंका रहेगी।
8. सोशल मीडिया के माध्यम से नई पीढ़ी और युवाओं में डिजिटल रूप से भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है, जिसके कारण देश में लंबे समय तक सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बना रह सकता है।
9. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को नुकसान पहुंचता है, खासकर मुस्लिम-बहुल देशों के साथ हमारे संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका बनी रहेगी।
10. और सबसे बड़ी बात कि इस तरह की घटनाओं से राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द के लिए दीर्घकालिक खतरा बना रहेगा।
सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी समाधान दे दिया, राम मंदिर भी बन गया और मस्जिद के लिए जमीन भी आवंटित कर दी गई — फिर भी दोनों पक्षों द्वारा हर साल 6 दिसंबर की स्मृतियां आयोजित किया जाना पुराने घावों को जबरन कुरेदे रखने की नापाक कोशिशें नहीं तो और क्या हैं? जब तक राजनीतिक दल और सामुदायिक संगठन इस दिन को “शोक” या “जीत” का प्रतीक बनाते रहेंगे, तब तक भारतीय समाज का वह एकीकृत भविष्य तो दूर ही रहेगा, जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी। इसलिए आवश्यक है कि सभी पक्ष संवाद, सद्भाव, परस्पर सम्मान और साझा विकास पर जोर दें, ताकि 6 दिसंबर को हर साल नई विभाजन रेखाएं खींचने के अवसर के तौर पर इस्तेमाल न किया जा सके और भारत सच्ची एकता की ओर बढ़ सके।