बिहार में नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के जरूरी और मजबूरी दोनों ही हैं। यहां भाजपा बीते 20 सालों से सहयोगी पार्टी बनी हुई है। पढ़ें पूरी खबर...
Bihar Elections: उत्तर भारत के हिंदी हार्टलैंड में बीजेपी (BJP) सरकार में हैं। नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) तीसरी बार प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार 8 सालों से सत्ता पर काबिज है। राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी पार्टी सत्ता में हैं। वहां भाजपा के सीएम काम कर रहे हैं। फिर भी बिहार, भारतीय जनता पार्टी के लिए एक यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है। यहां पार्टी लगभग 20 सालों से सत्ता में है, लेकिन एक सहयोगी के तौर पर। जदयू के अध्यक्ष नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बीते 20 सालों से सत्ता पर काबिज हैं।
बिहार में कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट और भाजपा (तब जनसंघ) का उदय लगभग एक साथ ही हुआ था। उस समय कांग्रेस का दबबदा था। 1952 और 1957 के बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनसंघ एक भी सीट नहीं जीत पाई। पार्टी का खाता पहली बार साल 1962 के विधानसभा चुनाव में खुला। तब 319 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में पार्टी ने तीन सीटें जीतीं। सीवान (जनार्दन तिवारी), मुंगेर (जगदंबी प्रसाद यादव) और नवादा (गौरीशंकर केसरी)।
इसके बाद साल 1967 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और जनसंघ के नेता साथ आ गए। इसके बाद संयुक्त विधायक दल (SVD) की सरकार बनी, जिसमें महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उप-मुख्यमंत्री बने। इस चुनाव में जनसंघ ने 26 सीटें जीतीं और पार्टी के तीन नेता मंत्री बने। इसके बाद के चुनाव में जनसंघ छोटी ही सही लेकिन एक ताकत बनी रही। पार्टी ने 1969 के मिड-टर्म चुनाव में 34 और 1972 में 25 सीटें जीतीं। जेपी आंदोलन के बाद जनता पार्टी ने 324 विधानसभा सीटों में से 214 सीटें जीतीं। जनता पार्टी में जनसंघ का विलय होने के कारण पार्टी के बड़े नेता कैलाशपति मिश्रा और ठाकुर प्रसाद मंत्री बने। बाद में 80 और 90 के दशक के चुनाव में पार्टी की स्थिति कमजोर हो गई।
पहले समता पार्टी और फिर जनता दल के साथ गठबंधन करने के बाद BJP को लगा कि वह RJD को चुनौती दे सकती है। हालांकि, 2000 के विधानसभा चुनाव में NDA को शिकस्त का सामना करना पड़ा। इसके बाद 2005 के चुनाव में जब बीजेपी ने नीतीश को सीएम उम्मीदवार घोषित किया तब जाकर लालू राज की समाप्ति हुई।
प्रदेश में बीजेपी का एक बड़ा तबका मानता है कि नेताओं की कमी ही पार्टी को बिहार में रोक रही है। 2005 में भी कैलाशपति मिश्रा कभी नहीं चाहते थे कि नीतीश को चेहरा के रूप में प्रोजेक्ट किया जाए। उस समय भाजपा के पास सुशील मोदी जैसा चेहरा था, लेकिन उन्होंने नीतीश का डिप्टी बनना मंजूर कर लिया। इसके बाद बिहार भाजपा में कोई ऐसा नेता नहीं उभरा जिसे मुख्यमंत्री पद के लिए सुयोग्य माना जा सके। कई इंटरव्यूज में सुशील मोदी भी इस बात को दोहरा चुके हैं कि भाजपा, जदयू और राजद बिहार की सियासत में त्रिभुज की तीन रेखाएं हैं। जब-जब दो रेखाएं मिलती हैं तो तीसरी से बड़ी हो जाती हैं।
यही नहीं, नीतीश ने जब 2013 में अपनी राहें अलग की तो 2014 में मोदी लहर में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से 31 सीटें जीती थी, लेकिन एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव (2015) में पार्टी 53 सीटों पर सिमट गई। उस समय नीतीश ने लालू संग गठबंधन कर लिया था। फिर साल 2020 में नीतीश, बीजेपी संग आ गए। इस चुनाव में JD(U) की 43 सीटों के मुकाबले भाजपा ने 74 सीटें जीतीं, इसके बावजूद CM का पद नीतीश को दे दिया गया।
सुशील मोदी के बाद ताराकिशोर प्रसाद, रेणु देवी, सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा को डिप्टी सीएम बनाने जैसा प्रयोग पार्टी ने किया, लेकिन नीतीश के समकक्ष जैसा कोई भी नहीं हो पाया। सम्राट चौधरी पार्टी में भले ही पार्टी में अपने समकक्ष नेताओं से आगे निकले, लेकिन प्रशांत किशोर द्वारा लगातार लगाए गए आरोपों को बाद बैकफुट पर चले गए हैं।
अब इस चुनाव में सीएम फेस को लेकर अमित शाह ने कहा कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, लेकिन अगला सीएम चुनाव के बाद तय होगा। यह बयान देने के बाद वह सीएम आवास पहुंचे और नीतीश से मिले। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में भाजपा 101, जदयू 101, लोजपा (रामविलास) 29, हम और रालोम 6-6 सीटों पर लड़ रही है। खास बात यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश को सीधे तौर पर डेंट पहुंचाने वाले चिराग इस बार नीतीश के सहयोगी की भूमिका में हैं।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भले ही NDA के CM चेहरे का नाम बताने से परहेज किया हो, लेकिन नीतीश की पार्टी जदयू 55-60 सीटें जीतने में कामयाब हो जाती हो तो नीतीश के सीएम बनने से रोकना लगभग असंभव हो जाएगा।