Gond Tribe in Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान में गोंडी आदिवासी समाज की अहम भूमिका रही है। यह लेख बस्तर, कांकेर, सरगुजा सहित विभिन्न जिलों में गोंड जनजाति की उपस्थिति, जीवनशैली, परंपराओं और सांस्कृतिक योगदान को उजागर करता है।
Gond Tribe in Chhattisgarh: छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में गोंडी आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गोंड जनजाति भारत की एक प्रमुख और प्राचीन जनजाति है, जो मुख्यतः मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और नदी घाटियों में बसती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर, कांकेर, नारायणपुर, कोरिया, कबीरधाम और सरगुजा जिलों में इनकी प्रमुख उपस्थिति है।
गोंड समुदाय का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। "गोंड" शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ मूल के शब्द "कोंड" से मानी जाती है, जिसका अर्थ है "पहाड़ी लोग"। ऐतिहासिक रूप से गोंड समुदाय ने कई क्षेत्रों में छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना की थी, जैसे गढ़मंडला, देवगढ़ और चांदा। 14वीं से 18वीं शताब्दी के बीच इनका प्रभाव मध्य भारत के बड़े हिस्सों में रहा।
गोंड जनजाति की प्रमुख भाषा गोंडी है, जो द्रविड़ भाषा परिवार की एक शाखा है। हालांकि आज इसकी मूल बोली खतरे में है, लेकिन कई क्षेत्रों में लोग अब भी गोंडी को बोलते और समझते हैं। गोंडी भाषा की अपनी लिपि भी है– गोंडी लिपि– जिसे अब संरक्षित और पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
गोंड समाज का जीवन प्रकृति के बहुत करीब है। इनकी संस्कृति में लोकगीत, लोकनृत्य और प्रकृति की पूजा का विशेष महत्व है।
नृत्य: गोंडी नृत्य जैसे धुर्री, काकसार, और नरायन नृत्य प्रमुख हैं।
त्योहार: गोंड समुदाय के प्रमुख पर्वों में माता कर्मा, जात्रा, मादई, और दशहरा शामिल हैं। बस्तर दशहरा इनकी सांस्कृतिक और धार्मिक आस्था का भव्य उदाहरण है।
धर्म और आस्था: गोंड आदिवासी प्रकृति उपासक होते हैं। वे फरसा पेन, गौरी पेन, और आंगादेव जैसे देवताओं की पूजा करते हैं। पेन पूजा इनकी धार्मिक परंपरा का अहम हिस्सा है।
गोंड आदिवासी विशिष्ट गोंडी चित्रकला (Gond Art) के लिए प्रसिद्ध हैं।
यह कला प्रकृति, पशु-पक्षियों और जनजीवन को जटिल रेखाओं और बिंदुओं के माध्यम से दर्शाती है।
आज यह कला राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी पहचान बना चुकी है।
गोंडी आदिवासी झूम खेती, वन उपज संग्रह (महुआ, चार, तेंदू, साल बीज), और पशुपालन से अपनी जीविका चलाते हैं।
जंगल और जमीन के साथ उनका रिश्ता सिर्फ आर्थिक नहीं, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भी है।
छत्तीसगढ़ में गोंडी आदिवासियों की जनसंख्या के बारे में उपलब्ध आधिकारिक आंकड़े 2011 की जनगणना पर आधारित हैं, क्योंकि 2021 की जनगणना अभी प्रकाशित नहीं हुई है।
छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या: लगभग 2.55 करोड़
कुल आदिवासी (जनजातीय) जनसंख्या: लगभग 78 लाख (राज्य की कुल आबादी का 30.6%)
गोंड जनजाति: छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी आदिवासी जनजाति
गोंडी आदिवासियों की जनसंख्या लगभग 42 से 45 लाख के बीच आंकी गई थी, यानी राज्य की कुल आदिवासी आबादी का लगभग 55-60%।
हालाँकि आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि दर को देखते हुए 2025 में गोंडी जनसंख्या का अनुमानित आँकड़ा 50–55 लाख के आसपास हो सकता है।
छत्तीसगढ़ की धरती विविध जनजातीय परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों से समृद्ध रही है। इन परंपराओं में गोंडी आदिवासी समाज की संस्कृति एक प्रमुख और विशिष्ट स्थान रखती है। गोंड समाज न केवल राज्य की सबसे बड़ी जनजाति है, बल्कि इसकी संस्कृति, आस्था, जीवनशैली और प्रकृति से जुड़ाव छत्तीसगढ़ की आत्मा को दर्शाता है।
लेकिन आज, गोंडी संस्कृति पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आधुनिकता, विस्थापन, सामाजिक संक्रमण और शासन-प्रशासन की उपेक्षा ने गोंडी समाज की भाषा, परंपरा, लोककला और पहचान को हाशिये पर ला दिया है।
भाषा का लोप
गोंडी भाषा अब बोलने वालों की संख्या में गिरावट देख रही है। युवा पीढ़ी हिंदी या अंग्रेज़ी की ओर अग्रसर है, जिससे गोंडी अपनी सामाजिक संवाद की भाषा नहीं रह गई है।
लोकपरंपराओं से दूरी
शहरों की ओर बढ़ते पलायन और आधुनिक शिक्षा के प्रभाव ने युवाओं को पारंपरिक नृत्य, गीत, त्यौहार और देवी-देवताओं से दूर कर दिया है।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
जंगलों की कटाई, खनन और औद्योगीकरण ने गोंडी समाज के जीवन के आधार – जंगल, जल और जमीन – को छीन लिया है।
आधुनिकता और बाजारवाद का प्रभाव
लोककला अब हस्तशिल्प बाज़ार की वस्तु बनती जा रही है। असली गोंडी शैली की जगह बाज़ार-उन्मुख चित्रकला ने ले ली है।
शिक्षा और प्रशासनिक उपेक्षा
गोंडी भाषा को स्कूलों में जगह नहीं मिलना, पारंपरिक संस्थाओं को मान्यता न मिलना और प्रशासनिक तंत्र में गोंडी लोगों की कम भागीदारी से संस्कृति का संरक्षण नहीं हो पा रहा है।