Motivational Story: सुख दुख जीवन का हिस्सा है, लेकिन कुछ लोग इसका सामना नहीं कर पाते और टूट जाते हैं. ऐसे लोगों को हमारी धार्मिक कथाएं रास्ता दिखाती हैं और हौंसला देती हैं कि विपरीत परिस्थितियों का सामना कैसे करें. कोजागर व्रत कथा ऐसी ही कथा है जो सिखाती है कि हिम्मत न हारें कभी भी चमक सकती है किस्मत..
कोजागर व्रत पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम के प्रमुख त्योहारों में से एक है, इस दिन देवी लक्ष्मी की विशेष पूजा-आराधना की जाती है। इस व्रत में रात्रिकाल में जागरण करने का विधान है। कोजागर व्रत कथा के अनुसार आश्विन पूर्णिमा की रात्रि में माता लक्ष्मी संसार में भ्रमण के लिए निकलती हैं और जो भी भक्त उन्हें जागता हुआ मिलता है।
देवी मां उसे धन-धान्य से सम्पन्न कर देती हैं। इसकी महत्ता स्कंद पुराण में भताई गई है। इसके अनुसार, कोजगर व्रत एक सर्वश्रेष्ठ व्रत है, जिसका विधिवत पालन करने से साधारण प्राणी भी उत्तम गति प्राप्त करता है तथा इस जन्म में और दूसरे जन्मों में भी ऐश्वर्य, आरोग्य एवं पुत्र-पौत्रादि का आनन्द भोगता है।
वहीं वालखिल्य ऋषि ने भी इसका महात्म्य बताया है। ऋषि वालखिल्य के शिष्यों ने एक बार उनसे पूछा था कि, कार्तिक के ऐसे उपांग व्रतों का वर्णन कीजिए, जिनके करने से कार्तिक का व्रत सम्पन्न हो जाता है।
वालखिल्य ने कहा कि, इसके लिए आश्विन माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को रात्रि में जागरण के साथ श्रद्धापूर्वक लक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस दिन नारियल-पानी पीने तथा चौसर खेलने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। इस पर उन्होंने वलित नाम के दरिद्र ब्राह्मण की कथा सुनाई।
ऋषि के अनुसार मगध देश में वलित नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। यूं तो वह अनेक विद्याओं का धनी था और नित्य सन्ध्यास्नान आदि करता था लेकिन आर्थिक रूप से वह अत्यन्त निर्धन था।
यदि कोई उसके घर आकर कुछ दान दे जाय तो स्वीकार कर लेता था वर्ना वह किसी से कुछ भी नहीं मांगता था। जितना वह ब्राह्मण सज्जन था उसकी पत्नी उतनी ही अधिक दुष्ट और कलहप्रिय थी। वह प्रतिदिन इस बात पर क्लेश करती थी कि, उसकी बहन का विवाह कितने धन सम्पन्न परिवार में हुआ है और वह सोने - चांदी के आभूषणों से सजी-धजी घूमती है।
ब्राह्मण की पत्नी अन्य लोगों के मध्य भी अपने पति के कुल और विद्या को तिरिस्कृत करती थी और उसने एक प्रण लिया कि, जब तक वो धनवान नहीं होंगे, तब तक वह पति के हर आदेश के विपरीत ही कार्य करेगी।एक दिन तो उसने अपने पति से राजा के यहां से धन चोरी कर लाने को कहा और ऐसा न करने पर मारने की चेतावनी दे डाली। वह दुर्जन स्त्री नाना प्रकार से वलित को पीड़ित करने लगी।
कभी अचानक रोने लग जाती तो कभी भोजन त्याग देती, कभी अत्यधिक भोजन ग्रहण करने लगती तो कभी अपना सिर फोड़ने लगती लेकिन वह ब्राह्मण किसी से भिक्षा मांगने की अपेक्षा उस स्त्री की प्रताड़ना सहना अधिक उचित समझता था। वह अपनी पत्नी से कभी कुछ नहीं कहता और जो प्राप्त हो जाता उसी में सन्तोष कर लेता था।एक बार श्राद्धपक्ष का समय था और घर में श्राद्ध के लिए आवश्यक समस्त सामग्री भी उपलब्ध थी लेकिन ब्राह्मण इस बात से चिंतित था कि उसकी पत्नी उसे घर में श्राद्ध आदि कर्म नहीं करने देगी और कलह करेगी।
वह यह सब मन ही मन विचार कर ही रहा था कि, उसका एक मित्र वहां आ गया और वलित से उसकी चिंता का कारण पूछा। वलित ने अपने मित्र को सारी दुविधा बताई। सारी बात सुनते ही उसका मित्र प्रसन्नतापूर्वक बोला कि, यह तो कोई समस्या ही नहीं है। यदि तुम्हारी पत्नी जो तुम कहते हो उसका उल्टा ही करती है तो तुम उससे जो भी कार्य करवाना चाहता है उसके विपरीत कार्य करने को कहो, तो तुम्हारी समस्या का समाधान हो जाएगा ।
इतना सुनते ही ब्राह्मण वलित हर्षित हो उठा और बोला कि, तुम सही कहते हो मुझे ऐसा ही करना चाहिए।ब्राह्मण सन्ध्याकाल अपने घर आया और पत्नी से बोला कि, हे चण्डी! परसों मेरे पिता का श्राद्ध है लेकिन उन्होंने मेरे लिए किसी प्रकार की धन - सम्पत्ति आदि नहीं छोड़ी जिसके कारण आज मुझे यह निर्धनता भोगनी पड़ रही है।
अतः तुम उनके श्राद्ध की कोई व्यवस्था मत करना और यदि करो भी तो दुश्चरित्र और जुआरी ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना। उसने पुनः अपनी पत्नी से कहा कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों को न्योता मत देना।ब्राह्मण के वचन सुनकर उसकी पत्नी ने उसके कथन से विपरीत करने की तैयारी आरम्भ कर दी। उसने विभिन्न प्रकार के व्यंजन पकाए और नगर के उत्तम ब्राह्मणों को निमन्त्रण दिया।
अपने पति के कथन का उल्टा करने की धुन में पत्नी ने विधि - विधान से श्राद्धकर्म सम्पन्न किया। श्राद्ध के अंत में पिण्डदान करने के बाद ब्राह्मण ने पत्नी से कहा कि, तू पिण्डों को प्रवाहित करना भूल गईं है, इन्हें गंगा जी में प्रवाहित कर आना। इतना सुनते ही उसकी पत्नी ने पिण्डों को शौच के कूप में डाल दिया।
इस घटना से वलित के हृदय को गहरा आघात पहुंचा और वह अत्यन्त क्रोध में अपने घर से माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के संकल्प के साथ निकल पड़ा। उसने प्रण लिया कि जब तक माता लक्ष्मी उस पर कृपा नहीं करेंगी, तब तक वह निर्जन वन में निवास कर मात्र कंद मूल आदि का सेवन करेगा और घर लौटकर नहीं आएगा।
लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए वह तीस दिनों तक धर्म नदी के तट पर बैठा रहा और उसी बीच अश्विन माह की पूर्णिमा आ गई।उस वन में कालीय नाग के वंश की कन्याएं लक्ष्मी जी की प्रसन्नता के लिए व्रत कर रहीं थीं। उन्होंने सुन्दर- स्वच्छ वस्त्र धारण कर रखे थे और उनका निवास स्थान श्वेत रंग की छटा बिखेर रहा था। नाग कन्याओं ने पंचामृत, रत्न एवं दर्पण आदि अर्पित कर देवी लक्ष्मी का श्रद्धापूर्वक पूजन किया।
प्रथम प्रहर पूजन में व्यतीत हो गया इसके बाद जुआ खेलने की तैयारी हुई, लेकिन जुआ खेलने के लिए चार व्यक्तियों की आवश्यकता थी और उन्हें चौथा भागीदार नहीं मिल रहा था। वह वन में चौथे व्यक्ति को खोज ही रहीं थीं कि, उनकी दृष्टि नदी तट पर बैठे वलित ब्राह्मण पर गई, जो मुखाकृति से उन्हें सज्जन प्रतीत हुआ।
नाग कन्याओं ने उससे पूछा कि आप कौन हैं? कृपया हमारे साथ लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए जुआ खेलने चलें।ब्राह्मण ने उत्तर दिया, आप कैसी अनुचित बात कर रहीं हैं, जुआ खेलने से लक्ष्मी का क्षय और धर्म का नाश होता है। कन्या ने कहा कि, आप बोलते तो पण्डितों की भांति हैं किंतु आपके विचार मूर्खों जैसे हैं।
इतना कहकर वह ब्राह्मण को अपने साथ मंदिर में ले गईं और उसको प्रसाद और नारियल पानी प्रदान किया। इसके बाद 'माता लक्ष्मी प्रसन्न हों' ऐसा बोलते हुए ब्राह्मण के साथ जुआ खेलना आरम्भ कर दिया।सर्वप्रथम नाग कन्यायों ने दांव पर अमूल्य रत्न लगाए लेकिन ब्राह्मण के पास कुछ नहीं था, इस कारण सर्वप्रथम उसने अपनी लंगोट दांव पर लगाई जिसे वह हार गया। बाद में उसने अपना जनेऊ दांव पर लगा दिया, नाग कन्याओं ने वह भी जीत लिया।
अब कोई अन्य वस्तु न होने पर ब्राह्मण ने अपने शरीर को ही दांव पर लगा दिया। इसी बीच मध्य रात्रि हो गई और देवी लक्ष्मी भगवान श्री नारायण के साथ संसार में भ्रमण करते हुये वहां से गुजरीं। भ्रमण करते - करते उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मण कौपीन व यज्ञोपवीत विहीन होकर घोर चिन्ता व निराशा से घिरा हुआ बैठा है।
यह दृश्य देख भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि, आपका व्रत करने वाले ब्राह्मण की ऐसी दुर्दशा क्यों है? कृपया अपने इस भक्त के कष्ट का निवारण करके, उसे धन-वैभव और सुख-सौभाग्य प्रदान करें।इतना सुनते ही माता लक्ष्मी ने ब्राह्मण पर अपनी कृपा दृष्टि डाली और उसकी समस्त दरिद्रता को नष्ट कर दिया।
लक्ष्मी जी की कृपा होते ही ब्राह्मण का रूप कामदेव के समान स्त्रियों को मोहित करने वाला हो गया। उसका यह मनोहारी रूप देखकर नाग कन्याओं ने उससे कहा कि, हे विप्रवर, हमने तुम्हें जीत लिया है, इस कारण से अब तुम हमारे पति बनकर हमारे अनुसार कार्य करो। ब्राह्मण ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया।
ब्राह्मण ने सभी कन्याओं से गन्धर्व विवाह किया तथा उन्हें नाना प्रकार के रत्नों के साथ वापस अपने घर के लिए निकल पड़ा।वापस अपने घर पहुंचने पर ब्राह्मण का ऐसा मानना था कि, उसकी पत्नी के अनादर और तिरस्कार के कारण ही उसका भाग्य परिवर्तित हुआ है, ब्राह्मण ने अपनी पत्नी का सम्मान किया जिससे वह अत्यधिक प्रसन्न हो गई और अपने पति की आज्ञा का पालन करने लगी।
इस व्रत के प्रभाव से वलित ब्राह्मण की समस्त समस्याओं का अन्त हो गया और वह सर्व सुखी सम्पन्न हो गया।इस प्रकार कोजागर व्रत कथा सम्पन्न हुई, विधिवत् इस कथा के श्रवण से व्रत का फल भी प्राप्त होता है।
शरद पूर्णिमा की कथा जीवन की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू कराती है. इसीलिए इससे सीखा जा सकता है कि विपरीत परिस्थितियों का सामना कैसे करें और हिम्मत न हारें, हर व्यक्ति का अच्छा समय जीवन में जरूरत आता है धैर्य से उसका इंतज़ार करें, शरद पूर्णिमा की कथा यह भी सिखाती है कि थोड़ी सी मुश्किल आने पर अपना सही रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए. सबसे बड़ी बात कपल्स में मतभेद को कैसे संभाले और छोटी छोटी बात पर रिश्ता तोड़ना सोल्यूशन नहीं है, अपने व्यवहार और काम को कैसा बनाएं कि सामने वाले का दिल जीत लें और अपने अनुरूप बना लें... सीख बहुत कुछ सकते हैं बस सीखने का मन और पढ़ने की नजर चाहिए..