आधुनिकता की होड़ में वाद्य यंत्रों का फूला दम, पर होली का कुंडा आज भी भरता है दंभ
बांसवाडा। आधुनिकता की होड़ ने न जाने कितनी पुरातन चीजों को इतिहास के पन्नों में दर्ज करा दिया। जिन वस्तुओं का कभी डंका बजता था आज विज्ञान के युग में कुछ चीजें गुम हो चुकी हैं। वाद्य यंत्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ है, जबकि डीजे और संगीत के आधुनिक यंत्र आने से हाथ की कलाकारी मानों गुम होती जा रही है। इसके उलट, वागड़ का एक यंत्र कुंडा ऐसा है, जिसका रुतबा पहले की भांति आज भी कायम है। ग्रामीण इलाकों में बिना इस यंत्र के होली मानों नामुमकिन सी है।
आदिवासी परंपरा के अनुरूप जिले में परंपरागत वाद्ययंत्रों की आज भी पूछ-परख है। इसी क्रम में मुख्य रूप से होली पर काम में लिया जाने वाला वाद्ययंत्र होली का कुंडा कुछ खास है। आदिवासी परंपरा के अनुसार वाद्य यंत्र कुंडी खासी प्रचलित है। मिट्टी के आधार पर चढ़ाया गया चमड़ा मनमोहक ध्वनि उत्पन्न करता है।
20 वर्षों से वाद्ययंत्रों का कार्य करने वाले कांतिलाल डबगर बताते हैं कि होली का कुंडा हो या कुंडी इसका आधार मिट्टी का बना है और इसे प्रत्येक कुम्हार नहीं बना पाते, क्योंकि इससे बेहतरीन ध्वनि उत्पन्न करने के लिए विशेष हुनर और मिट्टी की जरूरत होती है।
कांति बताते हैं कि इस आदिवासी बहुल क्षेत्र में नवरात्र, पितृपक्ष या अन्य धार्मिक अवसरों पर कुंडी, मंजीरे, ढाक, चंग, ढोलक, ढोल आदि यंत्रों का विशेष महत्व रहता है। हालांकि आधुनिक युग में डीजे आ जाने के कारण इन यंत्रों का क्रेज कम होता जा रहा है। जहां पहले खूब काम आता था, अब सीमित होकर रह गया है। यह कार्य डबगर समाज द्वारा किया जाता है। शहर में तो अब यह कार्य महज तीन लोग ही करते हैं और जिले में इनकी संख्या अधिकतम 7 से 10 होगी।