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सनातन संस्कृति का परिचायक है सीताबाड़ी का आदिवासी लघु कुंभ मेला

चार दशक पहले सीताबाड़ी मेले की पशु मेला के रूप में पहचान थी। यहां बड़ी संख्या में आदिवासी अंचल से लोग अपनी बैल-गाड़ियों को सजा कर 3 दिन पहले से ही डेरा डाल लेते थे।

बारांMay 26, 2025 / 11:58 am

mukesh gour

चार दशक पहले सीताबाड़ी मेले की पशु मेला के रूप में पहचान थी। यहां बड़ी संख्या में आदिवासी अंचल से लोग अपनी बैल-गाड़ियों को सजा कर 3 दिन पहले से ही डेरा डाल लेते थे।

सोर्स : पत्रिका फोटो

केलवाड़ा. हाड़ौती की तीर्थ स्थली सीताबाड़ी धाम नेशनल हाईवे 27 से महज 3 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है यह जिला मुख्यालय बारां से 45 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान तीन ओर से मध्यप्रदेश की सीमाओं से घिरा है। इसके उत्तर में श्योपुर, पूर्व में शिवपुरी, दक्षिण में गुना जिले की सीमा लगती है। इससे इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। यहां लक्ष्मणजी महाराज का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यहां लोग अपनी मनोकामना लेकर आते हैं और पूरी होने पर कनक दंडवत करते हैं। यहां भंडारों का आयोजन भी किया जाता है। यहां के कुंडों में अमावस्या, पूर्णिमा पर स्नान करने का विशेष महत्व माना जाता है। इसलिए प्रत्येक माह की अमावस्या को यहां मेला जैसा माहौल देखने को मिलता है। कई श्रद्धालु हर अमावस्या को कनक दंडवत करते हैं, कई पैदल दर्शनार्थ आते हैं।
सामाजिक एवं ऐतिहासिक महत्व

मेले हमारे सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। ये जीवन की नीरसता को समाप्त करके जीवन में प्रसन्नता भर देते हैं। अन्य लोगों से मिलने का तथा अपनी संस्कृति को पहचानने का ये मेले अवसर प्रदान करते हैं। चूंकि सीताबाड़ी मेला दो राज्यों की सीमा पर होने के कारण यहां सभी समाज एवं जातियों के लोग यहां आते हैं। वे यहां पर अपने सुख-दुःख, शादी-विवाह, खेती-बाड़ी की चर्चा भी करते हैं। इस कारण से इस मेले का सामाजिक महत्व और बढ़ जाता है।
चार दशक पहले यहां भरता था पशु मेला

चार दशक पहले सीताबाड़ी मेले की पशु मेला के रूप में पहचान थी। यहां बड़ी संख्या में आदिवासी अंचल से लोग अपनी बैल-गाड़ियों को सजा कर 3 दिन पहले से ही डेरा डाल लेते थे। वे उन गाड़ियों में अपने आवश्यक खाने पीने के सामान, तथा घर गृहस्थी का सामान भर खरीद कर ले जाते थे। अगर हम इसके ऐतिहासिक महत्व की बात करे तो यह मेला राजस्थान और मध्यप्रदेश के व्यापार का साक्षी रहा है। ग्राम पंचायत हर साल इस मेले का आयोजन करता आ रहा है l

सीताबाड़ी मेले का पौराणिक महत्व

सीताबाड़ी की ऐसी किवदंती है कि यहां पर भगवान लक्ष्मण मां सीता को वनवास होने पर इस बियावान जंगल में उनके आश्रय के रूप में इसी स्थान पर छोड़ने आए थे। जब माता सीता को प्यास लगी तो लक्ष्मणजी ने इसी स्थान पर अपना तीर चला कर जलधारा बहा दी थी। इसे आज बाणगंगा नदी के रूप में जाना जाता है। सीता कुटी के पास में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम इसके महत्व को और भी कई गुना बढ़ा देता है। यहां पर मां सीता ने शरण ली और यहीं पर लव-कुश का जन्म भी हुआ। लव-कुश की जन्म स्थली एवं क्रीड़ा स्थली सीताबाड़ी धाम यहां पास में ही महज 7 किलोमीटर की दूरी पर कुशियारा स्थित है जो कुश के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि यहां पर भगवान श्रीराम की सेना एवं लव-कुश के बीच जो समर (युद्ध) हुआ, उसे समरानियां कस्बे के रूप में जाना जाता है। यह इस क्षेत्र के प्रमुख कस्बे के रूप में पहचान रखता है।

वर्तमान मेले का स्वरूप

अगर हम मेले के वर्तमान स्वरूप की बात करे तो मेले के स्वरूप में काफी विस्तार हुआ है। नई सड़कें, परकोटे का जीर्णोद्धार, नए मंदिरों का निर्माण, आकर्षक बिजली की सजावट मेले में चार चांद लगाती है। प्रशासन भी आमूलचूल सुविधाएं उपलब्ध करवा रहा है। ऐसे में दूर-दूर के दुकानदार मेले में आने लगे हैं। वहीं नवनिर्मित मंदिर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। सीताबाड़ी में स्थित सिख समुदाय का प्रमुख केंद्र कलगीधर दरबार गुरुद्वारा, गायत्री शक्तिपीठ, शिव-पार्वती मंदिर, श्रीराम मंदिर, देवनारायण मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर, लवकुश मंदिर, सूर्य मंदिर, महर्षि वाल्मीकि मंदिर, सीता माता मंदिर सीताबाड़ी की शान बढ़ा रहे हैं।

साफ-सफाई का महत्व
ग्राम पंचायत दांता मेले में पेयजल, सुरक्षा तथा रोशनी की उचित व्यवस्था करती आ रही है l साथ ही साफ सफाई तथा कचरा की सुनियोजित व्यवस्था के प्रयास रहते हैं। लोगों का सीताबाडी मेले को लेकर यह कहना है कि ये मेला आज से 10 वर्ष पूर्व एक महीने का होता था परंतु विगत कुछ वर्षों से यह मेला मात्रा 10 से 15 दिन का ही रह गया है। लोगों का मानना है कि पर्यटन विभाग इस विषय पर ध्यान दें और प्रदेश स्तरीय आदिवासी लघु कुंभ मेला को अपने वास्तविक और भव्य स्वरूप में लाने के लिए उचित कदम उठाए।

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