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चित्रकूट में बनेगा राष्ट्रीय लीला प्रशिक्षण संस्थान, देश की 12 प्राचीन शैलियों को दिया जाएगा संरक्षण

चित्रकुट में वनवासी श्रीराम लोक के पास राष्ट्रीय लीला प्रशिक्षण संस्थान आकार लेगा। 5 एकड़ में बनने वाले इस संस्थान में देश की प्रमुख प्राचीन 12 शैलियों को संरक्षण और संवर्धन पर काम किया जाएगा।

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भारतीय संस्कृति में रचे-बसे भगवान राम और कृष्ण सहित अन्य प्राचीन लीलाओं को यहां उनके मूल के साथ आधुनिकता में पिरोकर नया आकार दिया जाएगा। संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव शिखशेखर शुक्ला के अनुसार रामलीला की विभिन्न शैलियों के मुख्य केंद्र उत्तरप्रदेश, राजस्थान, असम, ओडिशा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, त्रिपुरा, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश में पारम्परिक शैलियों में मंचन देखने को मिलते हैं।

अंचल के अन्य कलाकारों को प्रशिक्षण देंगे

प्रदेश में हुईं प्रस्तुतियों के दौरान लीलाओं में प्रमुख पात्र, नेपथ्यकर्मियों से संवाद में यह देखने को मिला कि इन मंडलियों को आज के दौर में देश में बहुत कम कार्यक्रम करने का मौका मिलता है। इनके पास संसाधन के अभाव के साथ आर्थिक रूप से उतने सक्षम नहीं बन पाते। गुरुकुल में देशभर में लीला के अनुशासन, अनुकरण, अभिनय, रंगभूषा, वेशभूषा, संगीत, लीला पाठ को मूल स्वरूप में फिर से लौटाया जाएगा। इसके लिए मंडलियों को यहां प्रशिक्षण दिया जाएगा। साथ ही मंच सामग्री और तकनीकी व्यवस्थाओं जैसे लाइट, साउंड सहित अन्य आधुनिक तकनीकों के बारे में भी बताया जाएगा। ये मंडलियां अंचल के अन्य कलाकारों को प्रशिक्षण देगी।

तीन शैलियों मे प्रमुख अनुकरण

अभी कुछ ही ऐसी मंडलियां हैं, जिनकी प्रस्तुति में आधुनिक के साथ भव्यता नजर आती है। ये लीलाएं ही हमारी देश की संस्कृति का प्रतीक हैं। छोटी मंडलियां भी आधुनिक होंगी तो युवा पीढ़ी या विदेश दर्शक पर इसका सकारात्मक प्रभाव पढ़ेगा। रामकथा को हमारे देश में अनेक तरीकों से लिखा और व्यक्त किया गया है। इसका गायन भी अनेक शैलियां में किया गया है। प्रमुख रूप से रामलीला मंचन की तीन शैलियों का अनुकरण देश में मिलता है। उत्तर भारत की स्वरूप शैली जैसे बनारस के तुलसी खुले मंचों की रामलीला, दूसरी पारसी शैली जैसे अयोध्या, मथुरा, वृंदावन की रामलीलाएं और तीसरी पारंपरिक काव्य सांगीतिक शैली जैसे यक्षगान, अंकिया नाट और जात्रा आदि। हालांकि, लोक में रामलीला का इतिहास कृष्णलीला की तरह बहुत पुराना नहीं है। बर्मा, थाईलैंड आदि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में भी अपनी-अपनी शैली में रामकथा का अभिनय होता है और इन सभी देशों की अपनी-अपनी रामायण है।