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15 August Special: एक गुमनाम नवाब जिसने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए, इतिहासकार भी उसे भूल गए

विद्वान इकबाल मोहम्मद खां की पुस्तक, ए टेल ऑफ सिटी में इस किले की बुलंदियों तथा खुर्जा के पीले किले का जिक्र है

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malagarh bulandshahr

राहुल गोयल,

बुलंदशहर। दुनिया पर हुकूमत करने वाले ब्रिटिश हुकमरानों के खिलाफ क्रांति में अग्रणीय भूमिका निभाने वाले बुलंदशहर जिले में मालागढ़ रियासत के ध्वस्त किले का एक-एक टुकड़ा सन 1857 के प्रथम स्वत्रंता आंदोलन की दास्ता सुना रहा है। वक्त की मार तथा सरकारी उपेक्षा के कारण नष्ट हो चुके, इस राष्ट्रीय धरोहर ने 1857 की प्रथम स्वत्रंता क्रांति के दौरान अहम भूमिका निभाई थी। बाद में अंग्रेजों ने तोपों से इस किले को ध्वस्त कर दिया था। इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय धरोहर को 150 वर्ष बीते के बाद भी पुरात्तव विभाग ने अपने कब्जे में नहीं लिया है।







इस किले का ऐतिहासिक महत्व इस बात से भी बढ़ जाता है कि दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह और 1857 की क्रांति के प्रमुख नायक भी यहां दो दिन रुके थे। अधिकांशत: पीले और लाल मिट्टी से बने इस किले के जर्जर परकोटो टूटे-फुटे महलों एवं अन्य अवशेषों के देखने से यही कहावत चरितार्थ होती है कि खण्डर बता रहे हैं कि इमारत अजीम थी। जाहिर हैं कि इस पुराने किले की बुलंदियों का अब कोई चश्मदीद गवाह नहीं रहा। इसलिए उस इतिहास को जानने के लिए हमें इन पर लिखी पुस्तकों का ही सहारा लेना होगा।

जाने-माने विद्वान इकबाल मोहम्मद खां की पुस्तक, ए टेल ऑफ सिटी में इस किले की बुलंदियों तथा खुर्जा के पीले किले का जिक्र है। पुस्तक के अनुसार किले के प्रमुख भवनों में दिवाने खास और दो शेन कक्षों में पच्चीकारी का सुंदर कार्य किया गया था। तोरण द्वार इतने बड़े थे कि उनसे हाथी पताका सहित निकल सकते थे।

बुलंदशहर से सात किलोमीटर की दूरी पर रियासत मालागढ़ थी, जहां वलीदाद खां का शासन था। मुगल दरबार में नबाव वलीदाद खां को विशेष सम्मान तथा स्थान प्राप्त था। उन्हें तोपों की सलामी भी दी जाती थी तथा नगड़ा रखने की भी विशेष स्वीकृति प्राप्त थी। अभिलेख बताते हैं कि 1857 की क्रांति में हिस्सा लेने वाले अधिकांश नवाब व राजा अपने अधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे थे। परंतु इतिहास का एकमात्र क्रांतिकारी नवाब वलीदाद खां ऐसा सिपाही था, जिसने अपने सभी राजसी वैभव को दांव पर लगा कर मेहनतकश मजदूरों के हक के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया।

1857 में मेरठ स्थित सैनिक छावनी में अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ उठी बगावत की आग को तेज करने तथा हुकूमत का नामोनिशान मिटाने के लिए विद्रोह की चिंगारी में यहां के नवाब वलीदाद खां ने घी का काम किया। मेरठ से आगे जब देशभक्त सिपाहियों का समुह चला तो गाजियाबाद पर दो दलों में बंट गया। एक दल दिल्ली रवाना हो गया, जबकि दूसरा बुलंदशहर की ओर आकर कानपुर नाना साहब पेश्वा के पास चला गया। इसी दौरान बुलंदशहर क्षेत्र के सिकन्द्राबाद, दादरी में नवाब वलीदाद खां ने स्वत्रंता का आहवान किया। उनके एक इशारे पर गुर्जर समुदाय के लोग ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जंग—ए—आजादी में कूद पड़ें। गुर्जर जाति महेनतकश मजदूरों का समुदाय था तथा ब्रिटिश शासन द्वारा सताया गया सबसे बड़ा भुक्त भोगी था।

मालागढ़ के नवाब वलीदाद खां के नेतृत्व में गुर्जर जाति के लोगों ने आजादी के जुनून में विदेशी शासन के प्रतीक डाक बंगलों, तारघरों एवं अन्य सरकारी इमारतों को चुन-चुनकर ध्वस्त कर उनमें आग लगा दी। बुलंदशहर की पुलिस छावनी को भी लूट लिया गया। क्रांतिकारियों ने पूरे बुलंदशहर क्षेत्र तथा अलीगढ़ की सीमा तक सभी संचार सेवाओं को भी ध्वस्त कर दिया। साथ पूरे इलाके को आजाद घोषित कर दिया था। बाद में ब्रिटिश शासन ने यहां भयंकर दमनचक्र का तांडव प्रस्तुत कर नवाब की सारी जागीरों को जब्त कर लिया।

10 अक्टूबर, 1857 को अग्रेजों ने मालागढ़ रियासत पर हमला कर दिया। दोनों ओर से तोपों के गोले आग बरसाने लगे। अंग्रेजों ने तीन दिन तक लगातकर तोपों के गोले मालागढ़ के किले पर बरसाते रहे, लेकिन किले पर कोई असर नहीं पड़ा। अग्रेंज कमांडर कर्नल ग्री थ्रेड ने दिल्ली से मदद की गुहार की। आनन फानन में दिल्ली से होपकिंस के नेतृत्व में मालागढ़ के लिए सैनिक टुकड़ी भेजी गई। इतिहासकार बताते हैं कि युद्ध के दौरान नवाब वलीदाद खां के तोपची अंग्रेजों से मिल गया और तोप का मुंह रियासत की ओर मोड़ दिया। तोपची ने किले की दिवार पर गोला फेंक दिया और देखते ही देखते किला ध्वस्त हो गया।

अग्रेजों ने नवाब वलीदाद खां को पकड़ लिया और फांसी पर चढ़ा कर काला आम चौराहें पर तीन दिनों तक उनकी लाश को आम के पेड़ पर लटका दिया। अंग्रेजी शासकों ने जिले के 45 गुर्जर जाति के लोगों को पकड़ कर जेल में डाल दिया तथा जिले के अन्य क्षेत्रों से भी हजारों की संख्या में लोगों को पकड़ कर जेल में डाल दिया। बाद में बुलंदशहर के काला आम चौराहें पर उन्हें बर्बता पूर्वक हत्या कर दी गई।

दुर्भाग्य का विषय यह है कि आजादी के बाद इस महान स्वतंत्रा सेनानी नवाब के नाम से कोई स्मारक भी नहीं बनवाया गया। आने वाले समय के लोगों को मालागढ़ रियासत के नवाब वलीदाद खां के जंग-ए-आजादी के महत्व के विषय में कोई जानकारी ही नहीं है वो इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। तथा 1857 स्वत्रंता संग्राम की जब बात आती है तो बुलंदशहर के योगदान को भुला दिया जाता है।

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