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अब सावन में नजर नही आते झूले, नही सुनाई पड़ते कजरी गीत

'बदरा छाए के झूले पड़ गए हाय, कि मेले सज गए, मच गई धूम रे, ओ आया सावन झूम के'... इस गीत को लिखते समय गीतकार ने सावन में झूले, तन-मन के रोमांच से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक को शामिल कर लिया था। उसने यह नहीं सोचा होगा कि जिस रोमांच की वह कल्पना कर रहा है, वह समय के संग विलुप्त हो जाएगा। हर साल सावन आता है, घनघोर घटाएं छाती हैं, लेकिन पेड़ों पर झूले नजर नहीं आते। ना कजरी की मीठी तान सुनाई पड़ती है ।

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-शहरीकरण ने खत्म की परम्परा, गांवों में भी नजर नहीं आते सावन की खुशियां मनाती महिलाओं-युवतियों की टोलियां और झूले
जबलपुर।
'बदरा छाए के झूले पड़ गए हाय, कि मेले सज गए, मच गई धूम रे, ओ आया सावन झूम के'... इस गीत को लिखते समय गीतकार ने सावन में झूले, तन-मन के रोमांच से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक को शामिल कर लिया था। उसने यह नहीं सोचा होगा कि जिस रोमांच की वह कल्पना कर रहा है, वह समय के संग विलुप्त हो जाएगा। हर साल सावन आता है, घनघोर घटाएं छाती हैं, लेकिन पेड़ों पर झूले नजर नहीं आते। ना कजरी की मीठी तान सुनाई पड़ती है । अब सब आधुनिक हो गया है। महानगर हो या ग्रामीण इलाके, न तो पहले की तरह बाग रहे न ही झूला पसंद करने वालीं युवतियां और महिलाएं। अब तो हालत ये है कि नव विवाहित महिलाएं भी सावन में अपने पीहर नहीं आतीं। इसलिए न तो विरह के गीत सुनाई पड़ते हैं, न ही झूलों को सावन के आने का इंतजार रहता है।

कजरी गीत कराते थे सावन की अनुभूति-

दो दशक पहले तक जब गांव-मुहल्लों से कजरी के गीत कानों में गूंजने लगते थे तो सावन मास के आने का अहसास हो जाता था। युवतियां और महिलाएं मेहंदी रचाकर, कजरी गीत गाकर झूला झूलती थीं। विवाहित महिलाएं सावन की शुरुआत में ही पीहर आ जाती थीं। द्वारकानगर लालमाटी निवासी बुजुर्ग कलावती पांडे बताती हैं कि उस समय तकरीबन हर मोहल्ले में एक न एक पेड़ तो ऐसा होता ही था जहां झूला पड़ जाता था। सामान्य तौर पर झूला नीम और आम के पेड़ पर डाला जाता था। धीरे-धीरे पेड़ घटते गए और लोगों के मन का रोमांच भी खत्म हो गया। शहरों के अधिकांश मुहल्लों में अब जो पेड़ हैं भी उन पर झूले नहीं पड़ सकते।

संस्थाए करती हैं औपचारिकता-
मदनमहल निवासी वयोवृद्ध गायत्री गुप्ता कहती हैं कि अब सावन के झूले कहीं नजर नही आते। इसके विपरीत साधन संपन्न लोग अपने बगीचों और बरामदों में लकड़ी, बांस और लोहे आदि से बने झूले रखते हैं। इन झूलों के लिए न तो सावन का इंतजार किया जाता है और न ही सिर्फ सावन में इन पर बैठा जाता है। बाजार में तरह-तरह के झूले इन दिनों ग्राहकों के आने का इंतजार है। इसके अलावा कुछ लोग सावन में अपने बच्चों के लिए दरवाजे की चौखट आदि पर झूला डालकर परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। कुछ संस्थाएं सावन में एक-दो दिन आयोजन करके झूला उत्सव करके इस याद को ताजा रखती हैं कि सावन में झूला भी झूला जाता है। हां, कुछ पुरानी बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में इक्का दुक्का बच्चे आज भी सावन में झूला झूलते हैं।

200 से लेकर बीस हजार तक के झूले-
सावन मास आने के साथ ही बाजार में छोटे और बड़े लोगों के लिए झूले सज गए हैं। शोरूम में इनकी कीमत अधिक और सड़क किनारे बिक रहे झूलों की कीमत कम है। बारह महीने तक के शिशुओं के लिए पालना और 12 महीने से लेकर 5 साल तक की आयु के बच्चों के लिए स्टील पाइप के झूले उपलब्ध हैं। पालना और झूलों की कीमत 400 से लेकर 6000 रुपये तक है। अधिक आयु के लोगों के लिए लोहे के पाइप का झूला उपलब्ध है। यह एक से लेकर तीन स्टेप में है। एक स्टेप के झूले में एक और तीन स्टेप वाले लोहे के झूले में तीन लोग एक संग झूला झूल सकते हैं। इसकी कीमत दस हजार से लेकर बीस हजार तक है। झूला व्यापारियों ने बताया कि झूलों की अब पहले जैसी बिक्री नहीं होती।

महिलाओं ने कहा-
सावन के झूले शहरी संस्कृति की भेंट चढ़ रहे हैं। शहर में झूले नहीं दिखते हैं। कजरी और मल्हार गाती महिलाएं नजर नहीं आती हैं। झूला झूलने का मन करता है, लेकिन संग देने के लिए कोई नहीं।
- मनीषा सोनी
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-मुझे आज भी याद है सावन मास की बारिश में कागज की नाव बना कर खेलना, आम के पेड़ों पर झूले झूलना और घर में बने पकवान। अब ये सब पुरानी बातें हो गई हैं। जीवन की खुशियां तकनीक के आगे कहीं खो गई हैं।
-शांति तिवारी
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ग्रामीण परिवेश की होने के कारण बाल्यकाल से ही झूला झूलने का शौक रहा है। लेकिन शहर में आने के बाद अब यह शौक पूरा नहीं हो पाता। जबलपुर में तो कहीं बाग नजर नहीं आते।
- विनीता पैगवार
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सावन में झूला झूलते समय पेंग मारने से कसरत हो जाती थी, लेकिन अब नहीं हो पाता। कजरी गीत गाकर झूला झूलने के आनन्द की तुलना ही नही हो सकती बदलते परिवेश ने सुंदर परम्परा छीन ली है।
-मनीषा जैन