आपस में ग्यारह भाई-बहन थे ओशो, पिता ने भी पुत्र ओशो से गृहण की थी गुरु दीक्षा
जबलपुर।ध्यान और अनूठे दर्शन के लिए विश्व विख्यात आचार्य रजनीश यानी ओशो का सोमवार ११ दिसंबर को जन्म दिवस है। ओशो के जन्म दिन को लेकर उनके अनुयायियों में खासा उत्साह है। शैलपर्ण स्थित ओशो आश्रम के साथ भंवरताल उद्यान स्थित संबोधि वृक्ष (मौलिश्री) के आसपास तैयारियों का दौर रविवार को दिन भर चलता रहा। जन्म दिवस पर मंगलवार को सुबह से ही यहां ओशो के अनुयायियों का तांता लगेगा। दिन भर ध्यान व कार्यक्रमों का दौर चलेगा। उनकी स्मृतियां फिर ताजा होंगी। कई संस्मरण और वाकये अनुयायियों के मानस पटल पर आएंगे। इन्हीं बातों में एक और वाक्या शुमार है, वह यह कि ओशो अपने पिता के भी गुरु थे। यानी उन्होंने अपने पिता को भी गुरु दीक्षा दी थी। इस राज को ओशो परिवार से जुड़े कम लोग ही जानते हैं।
कपड़े का व्यवसाय
उल्लेखनीय है कि ओशो का जन्म ११ दिसंबर १९३१ को मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में में हुआ था। उनके बचपन का नाम चंद्रमोहन जैन था। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा नरसिंहपुर गाडरवारा स्थित ननिहाल में हुई। उनके परिवारिक सदस्य राजवी जैन बताते हैं कि ग्यारह भाई-बहनों में से एक ओशो अपनी मां को भाभी और नानी को मां कहकर पुकारते थे। उनके पिता बाबूलाल जैन कपड़ों के व्यापारी थे। उन्होंने पुत्र ओशो से ही गुरु दीक्षा लेकर सन्यास ग्रहण किया था।
इसलिए कहते थे भाभी
पारिवारिक सूत्रों के अनुसार ओशो के चाचा भी उनके हम उम्र थे। सभी चाचा ओशो की मां यानी सरस्वती जैन को भाभी कहकर पुकारते थे। इसलिए वे भी मां को भाभी कहने लगे। जब वे ननिहाल में गाडरवारा आए तो हम उम्र मामा लोगों से संपर्क हुआ। उनके साथ वे भी अपनी नानी को मां कहकर बुलाने लगे। ओशो के बचपन के साथी स्वामी नरेंद्र बोधिसत्व बताते हैं कि ओशो का व्यक्तित्व बचपन से ही अद्भुत और बेहद प्रभावी था।
छात्र जीवन से ही मेधावी
गाडरवारा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद ओशो जबलपुर आ गए। उनका एक वाकया यह भी प्रचलित है कि जब वे जबलपुर के हितकारिणी कॉलेज में पढाई कर रहे थे, तो क्लास में एक विषय पर एक प्राध्यापक से उन्होंने खुलकर संवाद किया। विषय वस्तु का विरोध किया, इस पर उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। इसके बाद 1955 में उन्होंने डी. एन. जैन कॉलेज से दर्शन शास्त्र की पढ़ाई की।छात्र जीवन से ही उन्होंने लोगों के समक्ष भाषण देना शुरू कर दिया था।
100 विदेशी भाषाओं में अनुवाद
ओशो ने करीब 600 पुस्तकें लिखीं। संभोग से समाधी की ओर उनकी सबसे चर्चित कृति रही। उनके लिखे साहित्य का करीब १०० विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। रशिया, चाइना एवं अरब जैसे कम्युनिस्ट देशों में भी अब ओशो पढ़े और सुने जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण है कि ओशो में किसी प्रकार का जातीय धार्मिक पाखंड नहीं है। यहां सिर्फ खुशहाल जीवन जीने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिलता है
हर पहलू पर रखे विचार
उन्होंने मानव जीवन से जुड़े हर पहलू पर कार्य किया और लोगों को आत्म शांति के साथ अध्यात्म का रास्ता दिखाया। उन्होंने संस्कृति की अपेक्षा स्वयं के विकास पर ज्यादा जोर दिया। ताकि विकृत संस्कृतियों को बढ़ावा न मिले। स्वामी शिखर ने बताया कि ओशो ने पाया कि पाश्चात्य संस्कृति में भौतिक शांति जरूर मिल जाती है लेकिन अंत में मन की शांति के लिए वे भारत का रुख करते हैं। पूरे विश्व में ओशो आत्म शांति के सबसे बड़े उदाहरण है।