
16 सौ साल पुराना है बस्तर का बना यह जंगरोधी स्तंभ
अजय श्रीवास्तव, जगदलपुर। दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल लोह स्तम्भ है। यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। धातु विज्ञानियों ने बताया है कि इस स्तंभ को बनाने के लिए बैलाडीला की खान से निकले अयस्क का उपयोग किया गया है। इसकी खासियत यह है कि 16 सौ साल से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद भी इसमें जंग नहीं लगा है। इस लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८ फीसदी है ।
सात मीटर ऊंचा व 6 हजार किलो वजन का है: शुद्ध लोहे से बने इस स्तंभ की ऊंचाई सात मीटर से भी ज्यादा है जबकि वजन 6000 किलो से भी अधिक है। रासायनिक परीक्षण से पता चला है कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो के कई टुकड़ों को जोड़ कर किया गया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि करीब 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक क्या इतनी विकसित थी, क्योंकि उन टुकड़ों को इस तरीके से जोड़ा गया है कि पूरे स्तंभ में एक भी जोड़ दिखाई नहीं देता। यह सच में एक बड़ा रहस्य है।
12 सौ से 16 सौ साल पहले बनाया गया है : लौह स्तंभ में सबसे आश्चर्य की बात है इसमें जंग का न लगना। माना जाता है कि स्तंभ को बनाते समय इसमें फास्फोरस की मात्रा अधिक मिलाई गई थी, इसीलिए इसमें आज तक जंग नहीं लगा। दरअसल, फास्फोरस से जंग लगी वस्तुओं को साफ किया जाता है, क्योंकि जंग इसमें घुल जाता है। लेकिन सोचने की बात ये है कि फास्फोरस की खोज तो 1669 ईस्वी में हैम्बुर्ग के व्यापारी हेनिंग ब्रांड ने की थी जबकि स्तंभ का निर्माण उससे करीब 1200 साल पहले किया गया था। तो क्या उस समय के लोगों को फास्फोरस के बारे में पता था? अगर हां, तो इसके बारे में इतिहास की किसी भी किताब में कोई जिक्र क्यों नहीं मिलता? ये सारे सवाल स्तंभ के रहस्य को और गहरा देते हैं। पूर्व महानिदेशक, छत्तीसगढ़ प्रौद्योगिकी परिषद ( सीजीकास्ट )प्रो एमएम. हंबरडे ने बताया है कि बैलाडीला की खान के लोहे से बना हुआ है यह लौह स्तंभ। ऐतिहासिक काल में भी हमारे राज्य में धातु कर्म उच्च स्तरीय था। कई अन्य शासक वर्ग अपने हथियार और औजार के निर्माण के लिए यहीं के लोहे पर आश्रित थे।
गुप्त साम्राज्य से जुड़ा है नाता% कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) ने इसका निर्माण कराया था, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, है। सम्भवतः ९१२ ईपू में। यह स्तम्भपहले हिन्दू व जैन मन्दिर का एक भाग था। तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मन्दिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की।
माना जाता है कि मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे खड़ा किया गया था, जिसे 1050 ईस्वी में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल ने दिल्ली लाया। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका निर्माण उससे बहुत पहले किया गया था, संभवत: 912 ईसा पूर्व में। इसके अलावा कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि यह स्तंभ सम्राट अशोक का है, जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था।
Published on:
26 Oct 2022 06:52 pm
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