
-राजेंद्र शर्मा-
-गुजरात में 150+ सीटें आना तो दूर बीजेपी की सीटें कम होना बुरा संकेत
-मोदी का मान, गुजरात की अस्मिता हर जगह तो नहीं बचा पाएगी
ईमानदारी से दिल पर हाथ रखकर सोचें तो गुजरात चुनाव में बीजेपी भले ही जीती हो, लेकिन उसे सबक भी मिला है। मोदी भावुकता भरे भाषण और गुजरात की अस्मिता का प्रश्न बना बीजेपी येन-केन-प्रकारेण लाज बचाने में कामयाब भर हुए हैं, वह भी तकरीबन पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल, गुजरात सरकार और भाजपा और आरएसएस संगठन को पूरी तरह झोंककर। कांग्रेस का संगठन गांव और बूथ स्तर तक मजबूत होता तो नतीजे उलट ही थे, लाख धु्रवीकरण के बावजूद। जाहिर है, आने वाले साल में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में अगले साल होने वाले चुनाव के मद्देनजर बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। वजह साफ है, गुजरात में तो मोदी का नाम, वजूद और अस्मिता का प्रश्न आखिर में काम कर गए, अन्य राज्यों में मोदी का जादू ऐसा नहीं चलेगा। सब जानते हैं।
जनाधार खिसका
बीजेपी का जनाधार 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद खिसका है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को गुजरात के इतिहास में पहली बार 26 में से 26 सीटें मिली थी, 60 प्रतिशत वोट के साथ ही 182 में से 160 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी। इसी के मद्देनजर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ताल ठोक कर 150 प्लस सीटों का दावा कर रहे थे। और तो और, ओवरकॉन्फिडेंस में बीजेपी नेता 150 से कम सीट आने पर जश्न तक नहीं मनाने की बात कह रहे थे। हुआ क्या? सौ सीट भी नहीं आई, वोट 49 प्रतिशत मिला। दिल को बहलाने के लिए यह खयाल काफी है कि यह मत प्रतिशत पिछली बार से एक-दो प्रतिशत ज्यादा है, लेकिन इस तथ्य से भी आंख नहीं चुरा सकते कि कांग्रेस का मत प्रतिशत करीब पांच फीसदी बढ़ा है।
गुजरात में खिसका पाटीदार वोट
बीजेपी को गुजरात में खड़ी करने वाले यानी राजनीतिक रूप से जान फूंकने वाले पाटीदारों में इस चुनाव में साफतौर पर डिवीजन हो गया है। सौराष्ट्र में बीजेपी की हार का यही कारण है। जहां तक स्ट्राइक रेट का प्रश्न है पाटीदारों में कांग्रेस-भाजपा का 49-49 प्रतिशत यानी बराबर हो गया है। जबकि गुजरात की अन्य जातियों मे बीजेपी का स्ट्राइक रेट 55 और कांग्रेस का 42 फीसदी है। पाटीदार वोट जो कभी बीजेपी के अलावा किसी को नहीं गया, इस बार जाना बीजेपी के लिए खतरनाक है।
ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोरी आई सामने-
2014 के आम चुनाव में गुजरात के ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बीजेपी ने वर्चस्व स्थापित किया था, जबकि विधानसभा चुनाव में ग्रामीण मतदाता पर उसकी पकड़ ढीली साबित हुई। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बीजेपी का ग्रामीण क्षेत्र में स्ट्राइक रेट 42 तो कांग्रेस का 56 प्रतिशत रहा। इसका कारण किसानों की समस्याएं, पाटीदार अनामत आंदोलन, दलित आक्रोश और ग्रामीण इलाकों की अनदेखी माना जा सकता है।
कई मंत्रियों की हार
गुजरात सरकार पिछले लोकसभा चुनाव के बाद जनहित के प्रति कितनी संवेदनशील रही है, इसका प्रमाण सीटें घटना तो है ही, साथ ही सामाजिक न्याय राज्यमंत्री रहे केशाजी ठाकोर बनासकांठा की दीयोदर सीट से, सामाजिक न्यायमंत्री आत्माराम परमार बोटाद की गढ्डा सीट से, जल आपूर्ति मंत्री रहे जशा बारड़ सोमनाथ से, कृषि मंत्री चिमन सापरीया और बनासकांठा की वाव सीट से स्वास्थ्य मंत्री शंकर चौधरी की हार के रूप में भी सामनो आया है।
कांग्रेस की सीटें
कांग्रेस 1990 से संतोषजनक सीटों के लिए तरस गई थी। वर्ष 1990 में 33, 1995 में 45, 1998 में 53, 2002 में 51, 2007 में 59 और 2012 में 61 सीटें ही हासिल हो पाई थी। इस बार साझेदारों के साथ 83 और अकेले 77 सीटें मिली हैं।
राजस्थान आदि राज्यों के लिए खतरे का संकेत
राजस्थान सरकार खासकर भाजपा संगठन के लिए यह सोचने का विषय है कि यहां जब कई वर्ग एक साथ सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं और सरकार जिस तरीके से उनसे निपट रही है, वह आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। राजस्थान में जहां डॉक्टर, राज्यकर्मचारी, मंत्रालयिक कर्मचारी, संविदाकर्मी, पत्रकार इत्यादि के विरोध के साथ ही गुर्जर आरक्षण का मुद्दा फिर से रंग पकडऩे लगा है। गुजरात में जो बीजेपी पाटीदार आरक्षण की मांग पर पचास फीसदी से ज्यादा आरक्षण असंवैधानिक बता रही है, उसकी ही राजस्थान की सरकार गुर्जरों को कई बरसों से आरक्षण की लॉलीपॉप दे रही है। ऐसे में किसी तरह से गुर्जरों को मनाने के लिए सरकार एक प्रतिशत आरक्षण देने पर विचार कर रही है, तो यह बताने में नाकाम है कि उन बाकी चार जातियों का क्या होगा, जिन्हें भी गुर्जरों के साथ एसबीसी में आरक्षण का वादा किया गया था।
सरकार किसी वर्ग का विश्वास नहीं जीत पा रही है। मंत्री चिकित्सकों के लिए चींटी शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो डॉक्टरों सहित अन्य कर्मचारी सरकार पर सीधे वादाखिलाफी का आरोप लगा रहे हैं। उधर, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कमोबेश ऐसा ही अहंकार का भाव नजर आता है। इन राज्यों के मुखियाओं को यह सोच लेना चाहिए कि मोदी और गुजरात की अस्मिता का सवाल गुजरात में तो बचा गया, हर जगह नैया पार नहीं लगा पाएगा। और, न ही मोदी सब जगह गुजरात की तरह तीन दर्जन से ज्यादा रैलियां कर पाएंगे।
Published on:
18 Dec 2017 10:06 pm
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