महर्षि दयानंद सरस्वती सामाजिक क्रांति के पुरोधा थे। उन्होंने समाज में क्रांति लाने के लिए अछूतोद्धार,नारी सशक्तीकरण व एक ईश्वर की अवधारणा के विषय पर अनेक प्रवचन दिए और आंदोलन छेड़े। वे इस विषय पर जोर देते थे कि वेद ईश्वरीय वाणी है और कालांतर में वेद का विकृत रूप पेश किया गया, जिससे भारतीय संस्कृति लगभग नष्ट हो गई। उन्होंने वेद का पुन: शोधन कर सच्चे अर्थों में वेदों को दुनिया के सामने रखा और उसके माध्यम से एक सूत्र दिया- मनुर्भव अर्थात – मनुष्य बनो।
महर्षि दयानंद सरस्वती 31 मई 1883 को जोधपुर आए थे। उनका तत्कालीन महाराजा जसवंतसिंह के प्रधानमंत्री फैजुल्लाह खां की जोधपुर स्थित हवेली में साढ़े चार महीने प्रवास रहा था, जहां आज जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय का ओल्ड कैम्पस है। वे यहां नित्य प्रवचन करते थे और अंधविश्वास,पाखंड व ईश्वर की अवधारणा सिद्ध करते थे। महर्षि स्वदेशी जागरण का पाठ कराते थे। महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय उनके पास आते थे और वे उन्हें प्राचीनकाल के राजाओं के सुशासन का पाठ पढ़ाते थे। यहीं पर नैनीजान के मध्यम से षडयंत्र द्वारा उनके रसोईये जगन्नाथ के माध्यम से 29 सितंबर 1883 को दूध में जहर (लैड ऑक्साइड – सीसा) मिला कर दिया गया था। जब तबियत बिगड़ी तो उन्होंने रसोईये को बुला कर पूछा कि यह तूने क्या किया? तो उसने घबरा कर सारी बात बता दी कि मैंने जहर दिया है। जहर देने के पीछे अंग्रेजी साम्राज्य का बहुत बड़ा षडयंत्र था। क्यों कि वो स्वराज्य स्थापित करने की बात करते थे। वे देश के राजा-महाराजाओं को अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा करने के लिए प्रयासरत थे। इसलिए अंग्रेजी साम्राज्य उनके विरुद्ध था। जब तबियत ज्यादा बिगड़ी तो उन्हें माउंट आबू ले जाया गया।
वहां डॅा.अली मर्दान खां ने उनका इलाज किया। वे टठीक होने लगे थे, लेकिन रियासत ने डॅा.अली मर्दान खां को तत्काल जोधपुर बुला लिया और उनकी जगह डॉ. लक्ष्मणदास को माउंट आबू भेजा। इसके बाद उनकी तबियत और बिगडऩे लगी तब उनके भक्त भिनाय के राजा अपनी कोठी में ले गए और वहां ठहराया। दीपावली के दिन उन्होंने अपने भक्तों से पूछा- आज क्या है? भक्तों ने जवाब दिया – आज दीपावली-अमावस्या है।
उन्होंने कहा- ठीक है, मेरे कमरे के सारे दरवाजे खोल दो। उसके बाद उन्होंने अपने भक्तों में मुख्य रूप से महात्मा आत्मानंद, आचार्य भीमसेन व वैद्य लक्ष्मणदास आदि सभी शिष्यों को अपने पीछे खड़े होने का आदेश दिया। फिर भिनाय कोठी के सभी दरवाजे खुलवा दिए। वहां 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन संध्याकाल में उनका निधन हो गया। यहां मैं यह बताना चाहूंगा कि इसका अर्थ यह है कि आर्य समाज में सभी को आने देना, किसी के लिए दरवाजे बंद मत करना और मैंने जो वेद मार्ग बताया है उसका अनुसरण करना।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने मुंबई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना की थी। यह चैत्र सुदि एकम 7 अप्रेल 1875 का दिन था। यहां यह बताना बहुत उचित होगा कि जिस दान से आर्य समाज का भवन व यज्ञशाला बनी, उसमें पहला दानदाता हाजी अल्लाहरक्खा खां था। उन्होंने उस समय 5 हजार रुपए का दान दिया था। यह महर्षि दयानंद सरस्वती की सदभावना की जीती जागती मिसाल है। हमें यह भावना बनाए रखने के लिए आज भी प्रयास करना चाहिए। सभी को मिलजुल कर रहना चाहिए।