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कोटा के शाही दशहरे मेले की 10 कहानियांः घोड़े रौंदते रावण, फिर शुरू होती सवारी

कोटा. यूं तो दशहरा मेला अधिकृत रूप से 123 साल पुराना माना जाता है, लेकिन असल में कोटा में मेला परम्परा 650 साल पुरानी है।

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कोटा

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abhishek jain

Sep 30, 2017

Royal Dussehra Fair in Kota

कोटा. यूं तो दशहरा मेला अधिकृत रूप से 123 साल पुराना माना जाता है, लेकिन असल में कोटा में मेला परम्परा 650 साल पुरानी है।

कोटा. देश-विदेश तक प्रसिद्ध 25 दिन तक भरने वाला कोटा दशहरा मेला जितना आधुनिकता में रंगा दिखता है उससे कहीं ज्यादा यह विरासत वैभव अपने गर्भ में संजोए है। यूं तो दशहरा मेला अधिकृत रूप से 123 साल पुराना माना जाता है, लेकिन असल में कोटा में मेला परम्परा 650 साल पुरानी है।

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1371 में उद्भव
असल में, दशहरा क्षत्रियों का उत्सव है। कोटा शासक चौहान वंशीय क्षत्रिय हैं। क्षत्रियों में रावण वध परम्परा प्राचीन है। 1371 ईस्वी में बूंदी के राजकुमार जैतसी ने कोटा नगर की स्थापना के साथ ही रावण वध की परम्परा प्रारंभ की। इन 650 वर्षों में दशहरा उत्सव का स्वरूप बदलता रहा लेकिन रावण वध यथावत रहा। कोटा दशहरा में रावण वध की परम्परा भी अनूठी है। यहां रावण नहीं 'रावणजी'कहा जाता है। आज जहां 'रावणजी' का पुतला जलाया जाता है, वहां पहले रावण व उसके परिजन कुंभकरण, मेघनाद, मंदोदरी के नाम के गोल स्तंभ थे। इनके ऊपर कई मन लकडिय़ों के मुंह बनाए जाते थे। लाल रंग लगाया जाता, मानो रावण क्रोध से लाल हो। नगरवासी कंकड़ फेंक आक्रोश जताते।

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सुबह 10 बजे: बालाजी दरबार में चौगान्या खेल
दशहरा के दिन सुबह 10 बजे महाराव छोटी सवारी के साथ रंगबाड़ी मंदिर पहुंच बालाजी के दर्शन करते। पहले वहां बड़ा चौक था जहां चौगान्या खेल होता। महाराव सामंतों को चौगान बीच मदिरा पीकर खड़े भैंसे का एक ही वार में वध का इशारा करते। जो सामंत ऐसा नहीं कर पाता, उसकी खिल्ली उड़ती। यह सामंतों का शक्ति प्रदर्शन था। बाद में खून-खराबे के कारण महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय ने यह परम्परा बंद कर दी। गढ़ के भित्ती चित्रों में आज भी चौगान्या के सजीव चित्र मौजूद हैं।


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शाम 4 बजे: शमी पूजन और राजसी सवारी

शाम 4 बजे महाराव गढ़ में शौर्य के प्रतीक 'शमी' वृक्ष का पूजन करते। कुल देवी आशापुरा माता के दर्शन करते। महाराव भीमसिंह प्रथम को धोक देते। फिर गढ़ में ही बनाए गए गोबर के रावणजी को महाराव के खासा घोड़े रौंदते हुए निकलतेे। इसके बाद गढ़ से सवारी रवाना होती। महाराव के साथ सरदार, शस्त्रधारी सेवक, सामंत, सेना के सभी अंग आदि होते। राजसी वैभव की इस सवारी के आगे जांगड़-भांड नृत्य करते चलते। गढ़ से दोनों ओर दो तोपें भी चलती। पीछे जयपुर राज्य का पचरंगी झंडा रहता जिसे 1761 ईस्वी में भटवाड़ा की जंग में कोटा ने जयपुर को हराकर छीना था।


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दशहरा मैदान में रावण वध

दशहरा मैदान में सवारी पहुंचने पर महाराव हाथी से ही तोरण द्वार को कोड़े से मारते। इसके बाद महाराव, महाराज कुंवर बड़े सामंत रावण के सामने आते। रावण बुत के बीच में बने आळ्या में रखे लाल रंग के मटके (रावण की नाभि) को तीर चलाकर फोड़ते। मटका फूटते ही लाल रंग बिखर जाता और 'रावणजी' को मरा हुआ मान लिया जाता। बाद में रावण व उसके परिवार के बने लकड़ी के पुतलों को लोहे की मोटी जंजीर से हाथियों के बांध कर गिराया जाता। इस लकड़ी को गरीब परिवार के लोग घर ले जाते।


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दरीखाने में आथित्य सत्कार
वध के बाद सवारी गढ़ लौटती थी जहां दरीखाना लगता। बड़े सामंत, जागीरदार बैठते, अधिकारी व अन्य लोग खड़े रहते। महाराव सबको पान का बीड़ा बख्शते।