1/7 मुंह मांगी मुराद पूरी होने के तो तमाम किस्से सुने होंगे, लेकिन एक जगह ऐसी भी है जहां भगवान भक्तों के मन की सुनते हैं। मंदिर में खड़े भक्त के मन में जैसे ही कोई इच्छा जागृत होती है, भगवान उसे पूरी करने में क्षण भर की देर नहीं लगाते। हजारों साल से यह चमत्कार यहां रोज होता है। आइए आपको भी कराते हैं उस पावन धाम के दर्शन...
2/7 यूं तो कोटा की पहचान कोचिंग नगरी के तौर पर होती है, लेकिन महर्षि विश्वामित्र और इंद्र की अप्सरा मेनका के मिलन से जन्मी उनकी पुत्री शकुंतला से भी इस शहर का गहरा रिश्ता रहा है। विश्वामित्र के अभिन्न मित्र और सप्तऋषियों में से एक महर्षि कण्व जिन्हें ऋषि कर्णव के नाम से भी जाना जाता है, ने शकुंतला का पालन-पोषण किया था। आर्याव्रत नरेश दुष्यंत से मिलन के बाद शकुंतला ने ऋषि कण्व के आश्रम में भरत नाम के पुत्र को जन्म दिया। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।
3 भगवान भोलेनाथ के परम भक्त महर्षि कण्व ने आर्याव्रत में चार आश्रमों की स्थापना की थी। जिसमें से एक कोटा के कंसुआ गांव में स्थापित है। उन्होंने आश्रम में ही अपने आराध्य देव भगवान शिव और उनके परिवार के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा भी की। महर्षि कण्व की भक्ति से प्रसन्न भगवान भोलेनाथ ने उन्हें वरदान दिया कि अपने और जगत के कल्याण की इच्छा से आश्रम में आने वाले लोगों को कुछ भी मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मेरी प्रतिमा के समक्ष उसके मन में जैसे ही कोई इच्छा आएगी मैं तत्काल पूरी करूंगा।
4 कर्णेश्वर धाम दुनिया का यह ऐसा इकलौता मंदिर है जहां भगवान शिव के साथ उनका पूरा परिवार विराजता है। यहां भगवान शिव के साथ माता पार्वती और मां गंगा ही नहीं उनके दोनों पुत्र भगवान गणेश और कार्तिकेय के साथ-साथ पुत्री अशोकासुंदरी भी विराजमान हैं। आश्रम में शिवगण, नंदी और भैरव भी विराजमान हैं।
इस मंदिर की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि भगवान शिव अपने भक्तों को माता पार्वती जितना स्नेह देते हैं। यहां भगवान शिव माता पार्वती के साथ नंदी पर विराजमान हैं। चंवर ढुला रही मां पार्वती भगवान शिव को निहार रही हैं और प्रेम के वशीभूत भगवान भी उन्हें देख रहे हैं, लेकिन जैसे ही कोई भक्त उनके चरणों में ढोक देता है उस पर भी उनकी उतनी ही दृष्टि रहती है। इसके साथ ही मंदिर में तीन चतुर्भुजी शिवलिंग भी स्थापित हैं जो अपने-आप में अनूठे हैं।
6 कर्णेश्वर धाम में मौर्य शासकों की अगाध श्रद्धा थी। आश्रम की हालत जीर्ण-शीर्ण होने पर राजा धवल ने 738 ईस्वी में अपने सेनापति शिवगण को मंदिर का जीर्णोद्धार कराने का आदेश दिया। काम पूरा होने पर शिवगण ने मंदिर की दीवार पर दो शिलालेख भी लगवाए। प्राकृत और आदिसंस्कृत भाषा में लिखे इन शिलालेखों में मंदिर की महत्ता का उल्लेख किया गया है।
7 मंदिर की स्थापना इस तरह की गई है कि सूर्य जब भी उत्तरायण और दक्षिणायन होता है दोनों बार एक-एक महीने के लिए उनकी पहली किरण सीधे मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव की प्रतिमा के चरणों में पड़ती है। मान्यता है कि मंदिर के प्रांगण में स्थापित जल कुंड में स्नान करने से समस्त कष्टों का अंत हो जाता है।