
कितने मुस्लिम जिला पंचायत अध्यक्ष जीते
पत्रिका न्यूज नेटवर्क
लखनऊ. उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव नतीजों में सपा की बुरी हार और भाजपा को ऐतहासिक जीत मिली है। पर इस चुनाव में सबसे बड़ा नुकसान मुसलमानों का हुआ। यह पहली बार है जब यूपी में एक भी मुस्लिम जिला पंचायत अध्यक्ष जीतकर नहीं आया है। मुस्लिम वोटों का दम भरने वाली सपा से भी जीते पांचों जिला पंचायत अध्यक्ष गैर मुस्लिम (यादव) ही हैं। यहां तक कि मुस्लिम बाहुल्य जिलों में भी जिला पंचायत का प्रतिनिधित्व किसी मुसलमान के पास नहीं। इसको लेकर असदुद्दीन ओवैसी ने भी सवाल उठाए हैं।
उत्तर प्रदेश में कुल 75 जिलों में 75 जिला पंचायत अध्यक्ष की सीटें हैं। भाजपा ने इसमें से सबसे अधिक 65 सीटों पर जीत दर्ज की है, जबकि समाजवादी पार्टी महज पांच पर सिमट गई। रालोद और राजा भैया की जनसत्ता दल को एक-एक सीटों पर जीत मिली। तीन निर्दलीय भी जीते हैं, जिनमें से एक सीट पर बीजेपी ने पार्टी के बागी को ही दांव खेलकर जिता दिया। इनका भाजपा में जाना तय है। इस तरह से भाजपा के पास 66 सीटें हो जाएंगी।
2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ था कि उत्तर प्रदेश से एक भी मुस्लिम सांसद जीतकर नहीं गया था। तब भी सपा को पांच सीटें मिली थीं और उनपर जीतने वाले सभी यादव (मुलायम परिवार के) थे। इस बार जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में भी भी सपा पांच सीटों पर सिमटी है। पर अबकी सूरतेहाल कुछ जुदा है। मुस्लिम वोटों पर दावा करने वाली समाजवादी पार्टी ने 75 में महज 3 टिकट मुस्लिमों को दिया था, जबकि मुसलमान यादवों से दोगुने अधिक हैं। बीेजेपी ने सधी हुई सोशल इंजिनियरिंग की, जिसमें मुस्लिम कैंडिडेट फिट नहीं बैठे। हालांकि पांच ऐसे जिले हैं जहां भाजपा की जीत में मुस्लिम जिला पंचायत अध्यक्षों का अहम योगदान है।
असदुद्दीन ओवैसी का आरोप है कि मंसूबा बंद तरीके से मुसलमानों को सियासी, म'आशी (आर्थिक) और समाजी तौरपर दूसरे दर्जे का शहरी बना दिये जाने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि नई सियासी तदबीर अपनाए बिना हमारे (मुसलमानों) के मसाइल (समस्याएं) का हल नहीं होने वाला। ओवैसी ने यूपी विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनका चैलेंज कबूल करते हुए कहा है क 2022 में बीजेपी की ही सरकार बनेगी।
ओवैसी का ट्वीट
"उत्तर प्रदेश के 19 प्रतिशत आबादी वाले मुसलामानों का एक भी जिला अध्यक्ष नहीं है। मंसूबा बंद तरीक़े से हमें सियासी, म'आशी और समाजी तौर पर दूसरे दर्जे का शहरी बना दिया गया है। उत्तर प्रदेश की एक सियासी पार्टी खुद को भाजपा का सबसे प्रमुख विपक्षी दल बताती है। ज़िला पंचायत के चुनाव में उनके 800 सदस्यों ने जीत दर्ज की थी, लेकिन अध्यक्ष के चुनाव में मात्र 5 अध्यक्ष की सीटों पर उनकी जीत हुई है ऐसा क्यों? क्या बाक़ी सदस्य भाजपा के गोद में बैठ गए हैं? मैनपुरी, कन्नौज, बदायूँ, फ़र्रूख़ाबाद, कासगंज, औरैया, जैसे ज़िलों में इस पार्टी के सबसे ज़्यादा प्रत्याशी जीत कर आए थे, लेकिन अध्यक्ष के चुनाव फिर भी हार गए, इन सारे ज़िलों में तो कई सालों से ‘परिवार विशेष’ का दबदबा भी रहा है। अब तो हमें एक नई सियासी तदबीर अपनाना ही होगा। जब तक हमारी आज़ाद सियासी आवाज़ नहीं होगी तब तक हमारे मसाइल हल नहीं होने वाले हैं। भाजपा से डरना नहीं है, बल्कि जम्हूरी तरीके से लड़ना है।"
मुस्लिम लीडरों की कमी
उत्तर प्रदेश की नई सियासी फिजा में कद्दावर मुस्लिम नेताओं की कमी है। सपा से लेकर बसपा और यहां तक कि कांग्रेस में भी बड़े और दमादार मुस्लिम नेताओं की कमी है। यूपी के सबसे बड़े मुस्लिम नेता कहे जाने वाले सपा के कद्दावर नेता आजम खान जेल में हैं। कांग्रेस के पास ले-देकर एक नया चेहरा इमरान प्रतापगढ़ी का है, जो अभी बिल्कुल नए हैं और पार्टी उन्हें बढ़ा रही है। इस खाली जगह को भरने को ओवैसी बेताब हैं और उन्हें लगता है कि इसका सही समय भी यही है।
2022 में क्या होगा
हालांकि सब जानते हैं कि जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर ज्यादा से ज्यादा सत्ताधारी दल का कब्जा होता है। यह कोई नई बात नहीं। पर सवाल है कि विधानसभा चुनाव में क्या होगा? अगर भाजपा इसी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को लेकर मैदान में आती है तो सपा को अपना परंपरागत वोट बचाना भी मुश्किल होगा। ऐसे में मुस्लिम वोटों का भी बिखराव होगा। बिहार चुनाव की तरह बड़ी पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों से परहेज करने पर विधानसभा में भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर असर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
Published on:
05 Jul 2021 02:17 pm
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