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‘खुदा हाफिज’ : गले नहीं उतरतीं घटनाएं, ऐसी फिल्म से भगवान बचाए

Khuda Haafiz उन फिल्मों में से है, जो जुर्म के खिलाफ लड़ाई के कारगर औजारों से लोगों का ध्यान हटा कर फंतासी की ऐसी दुनिया में भटकाती है, जहां आदमी के दुख-दर्द भी तमाशा बना दिए जाते हैं।

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'खुदा हाफिज' : गले नहीं उतरतीं घटनाएं, ऐसी फिल्म से भगवान बचाए

'खुदा हाफिज' : गले नहीं उतरतीं घटनाएं, ऐसी फिल्म से भगवान बचाए

-दिनेश ठाकुर
आजादी की सालगिरह की पूर्व संध्या पर एक और नई फिल्म 'खुदा हाफिज' (खुदा रक्षा करे, भगवान बचाए) सीधे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई। इसकी कहानी घरेलू पार्टी से शुरू होती है। इस तरह की पार्टियां अस्सी के दशक की फिल्मों में दिखाई जाती थीं, जिसमें हर कोई बिना बात बोलता था और बाकी सारे बिना बात ठहाके लगाते थे। इस पार्टी के बाद सॉफ्टवेयर इंजीनियर हीरो (विद्युत जामवाल) और हीरोइन (शिवालिका ऑबेरॉय) की शादी हो जाती है। असली किस्सा यहीं से शुरू होता है। किस्से में दुनिया मंदी से गुजर रही है और हीरो-हीरोइन नौकरी की तलाश में जुटे हैं। किसी के जरिए हीरोइन को नोमान नाम के काल्पनिक खाड़ी देश में नौकरी का ऑफर मिलता है। कोई और होता तो जांच-पड़ताल किए बगैर अपनी पत्नी को किसी अजनबी देश में जाने की इजाजत नहीं देता, लेकिन विद्युत जामवाल पहली फुर्सत में शिवालिका को नोमान रवाना करते हैं। वहां पहुंचने के बाद शिवालिका गायब हो जाती हैं। फिर शुरू होता है बीवी की खोज का अभियान, जो उतना ही अजीबो-गरीब है, जितनी यह फिल्म है।

निर्देशक फारुक कबीर ने अपनी पिछली फिल्म 'अल्लाह के बंदे' (2010) से जो उम्मीदें जगाई थीं, 'खुदा हाफिज' उन्हें चूर-चूर कर देती है। करीब दो घंटे लम्बी इस फिल्म की ज्यादातर घटनाएं इतनी उबाऊ और हास्यास्पद हैं कि देखने वाले 'भगवान बचाए' की मुद्रा में आ जाते हैं। भावुक दृश्यों में भी अगर देखने वालों को हंसी आए तो फिल्म के हुलिए को समझा जा सकता है। बाकी नक्शा 'नोमान के तेल के आगे रिसेशन (मंदी) भी पानी नहीं मांगता' जैसे बड़बोले संवाद साफ कर देते हैं। फिल्म में हद से ज्यादा खून-खराबा है। कभी गोलियां चलती हैं तो कभी चाकू। जहां ये दोनों नहीं चलते, वहां किचन के कांटे-छुरी चलने लगते हैं। किसी फिल्म को तर्कसंगत क्लाइमैक्स तक ले जाने के लिए जो स्वाभाविक लय जरूरी होती है, 'खुदा हाफिज' में गायब है। यह उन फिल्मों में से है, जो जुर्म के खिलाफ लड़ाई के कारगर औजारों से लोगों का ध्यान हटा कर फंतासी की ऐसी दुनिया में भटकाती है, जहां आदमी के दुख-दर्द भी तमाशा बना दिए जाते हैं।

विद्युत जामवाल शरीर सौष्ठव पर इतनी मेहनत करते हैं कि अभिनय पर ध्यान नहीं दे पाते। 'खुदा हाफिज' में फिर साबित हुआ कि किरदार के अनुरूप अभिनय करना उनके लिए दूर की कौड़ी है। पूरी फिल्म में उनका चेहरा भाव शून्य बना रहता है। उन्हें देख कर लगता नहीं कि उनकी बीवी अजनबी देश में गुम हो चुकी है। शिवालिका ऑबेरॉय को कुछ खास नहीं करना था। अन्नू कपूर नाटकीय होने के बावजूद थोड़ी-बहुत राहत देते हैं। अगर यह फिल्म सिनेमाघरों में पहुंचती तो उनके 'तुम जिसे कर्ज कहते हो, पठान उसको अपना फर्ज मानता है। तुमको जो अहसान लगता है, मोमिन (धर्मनिष्ठ) को ईमान लगता है' जैसे संवादों पर कुछ तालियां जरूर बजतीं।