जरा-सी हवा पाते ही यह फुफकार उठती है। यह विकास की अधकचरी समझ का नतीजा है कि हिंसा को समस्याओं से निपटने का आखिरी रास्ता मान लिया जाता है। सबसे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ जिन बड़े देशों पर अंतरराष्ट्रीय शांति बरकरार रखने की जिम्मेदारी है, उन्होंने अब तक इजरायल और फिलिस्तीन में लगी आग बुझाने की कोई ठोस पहल नहीं की है। इसके बजाय वे पक्ष-प्रतिपक्ष में लामबंद हो रहे हैं। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने रविवार को एक ट्वीट में ‘समर्थन’ के लिए अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, साइप्रस, जॉर्जिया, जर्मनी, इटली, यूक्रेन समेत 25 देशों के प्रति जो आभार प्रदर्शन किया, उससे साफ हो जाता है कि कुछ बड़े देशों के लिए हिंसा भी गुटबाजी के प्रदर्शन का मौका है जबकि बरसों से जारी लड़ाई के स्थायी समाधान के लिए दरकार निष्पक्ष व तटस्थ नजरिए की है।
ताजा हिंसा पर भारत सरकार की अधिकृत प्रतिक्रिया भले न आई हो, भारत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से इजरायल और फिलिस्तीन में शांति बहाली पर जोर देता रहा है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. त्रिमूर्ति ने 11 मई को सुरक्षा परिषद की बैठक में शांति वार्ता फिर शुरू करने पर जोर देते हुए कहा कि इस समय सभी पक्षों को संयम बरतना चाहिए। उन्होंने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव नंबर 2334 के पालन पर भी जोर दिया। यह प्रस्ताव 2016 में परित किया गया था। इसमें कहा गया था कि यरुशलम समेत 1967 के बाद के कब्जे वाले फिलिस्तीनी इलाकों में बसाई गईं इजरायली बस्तियां अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन थीं। आग में घी डालने के बजाय बड़े देशों को भी शांति वार्ता के लिए जमीन तैयार करने की कोशिशों में जुटना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र को फौरी तौर पर अपनी टीमों को शांति मिशन पर रवाना कर देना चाहिए। मध्य पूर्व का हिंसा की अंधी सुरंग की तरफ बढऩा तमाम दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। बेशक सभी देश इस समय कोरोना से युद्ध में व्यस्त हैं, लेकिन दुनिया में कहीं भी किसी और युद्ध की आशंकाओं को टालना सभी देशों की सामूहिक जिम्मेदारी है।