
विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक
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नौ साल का एक भाई अपनी सात साल की बहन की पुरानी चप्पल बाजार में खो देता है। ढूंढने की अनथक कोशिशें कर अंतत: उदास, सहमा भाई घर लौटता है। उसे अहसास है कि वह मरम्मत की हुई चप्पल उसकी बहन के लिए कितनी जरूरी थी, क्योंकि उसके पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि वे उसके लिए दूसरी चप्पल खरीद सकें, और नंगे पांव वह स्कूल जा नहीं सकती। चप्पल खोने की बात कह कर दोनों बच्चे अपने मां-बाप की चिंता बढ़ाना नहीं चाहते, वे रास्ता निकालते हैं। सवेरे के स्कूल में पढ़ रही बहन को भाई अपना जूता दे देता है, इस हिदायत के साथ कि वह छुट्टी होते ही घर लौट जाए ताकि उसी जूते को पहनकर वह स्कूल जा सके।
सात साल की उस छोटी लडक़ी को भी अपनी जवाबदेही का अहसास है, वह छुट्टी होते ही घर के लम्बे रास्ते की ओर दौड़ लगाती है। बावजूद इसके भाई को रोज स्कूल पहुंचने में देर होती है, वह रोज शिक्षक की डांट सुनता है, पर उसके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। एक दिन बहन एक बच्ची के पांव में अपनी चप्पल देख लेती है। वह भाई के साथ उसके घर तक पहुंच जाती है, इस आक्रामकता के साथ कि आज उससे चप्पल छीन ही लेनी है। दोनों छिप कर उसके बाहर निकलने की प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन जब वे उस बच्ची को अपने अंधे पिता के साथ छोटे से खोंचे में कुछ सामान साथ लेकर फेरी के लिए निकलता हुआ देखते हैं तो किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, एक-दूसरे के चेहरे को देखते हुए वापस लौट जाते हैं।
माजिद माजिदी की फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हेवन’ की यह आरम्भिक कथा है। वास्तव में माजिदी कैमरे से बच्चों की संवेदना का जो संसार रचते हैं उसकी शब्दों के माध्यम से बयानगी संभव ही नहीं। दोनों भाई बहनों के प्रेम, एक-दूसरे के प्रति उनके समर्पण, परिवार और समाज से सरोकार - वास्तव में वे बच्चे तो बड़े नहीं लगते, पर हम काफी छोटे लगने लगते हैं उनके सामने। अपने जूते तो छोड़ कर वे वापस आ जाते हैं, पर उनकी जरूरतें जस की तस हैं। भाई के सामने एक राह आती है जब शहर में दौड़ प्रतियोगिता होती है। इस दौड़ में चैम्पियन को कप मिलना है जबकि रनरअप को जूते। भाई तैयारी तो रनरअप की करता है, पर प्रथम आ जाता है।सभी वाहवाही में जुटे हैं, पर उसकी उदासी खत्म नहीं हो रही, उसकी आंखों के सामने वही जूते आ जाते हैं। उदास-थका जब वह घर लौटता है तो एक और दुख के पहाड़ का अहसास होता है। उन भाई-बहनों के बीच का वह इकलौता जूता दौड़ में पूरी तरह टूट चुका होता है।
कहानी यहीं खत्म होती है, लेकिन परदे पर एक और दृश्य आता है, जब थक कर भाई आंगन में बने छोटे से कुंड के पानी में थकान उतारने के लिए पांव उतार देता है, और छोटी-छोटी मछलियां उसके पैरों के पास जमा हो जाती हैं, जैसे प्रकृति भी उसका सम्मान कर रही हो। यह छोटी-सी फिल्म बहुत कुछ नहीं कहती, बस बालमन की निश्छल अच्छाइयों से रू-ब-रू होने का अवसर देती है। 1997 में बनी ईरान की छोटी-सी फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हेवन’ की इस बड़ी-सी कहानी की चर्चा बस यह याद दिलाने की कोशिश है कि हर साल ‘बाल दिवस’ मनाने के साथ दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले हम ऐसी एक भी फिल्म का निर्माण क्यों नहीं कर सकते हैं।
Published on:
17 Nov 2024 10:27 pm
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