सामयिक: संकेत साफ है कि संसद से सडक़ तक सत्तापक्ष और विपक्ष में टकराव और बढ़ेगा ही
राज कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
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राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को संविधान और लोकतंत्र की जीत बताते हुए कांग्रेस ने जिस तरह भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार पर निशाना साधा है, उससे साफ है कि इस मुद्दे पर राजनीति और गरमाएगी। राहुल गांधी के मोदी सरनेम संबंधी बयान को आपत्तिजनक मानते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि मामले में उन्हें अधिकतम दो वर्ष की सजा दिए जाने पर जो सवाल उठाए हैं, उनका कानूनी ही नहीं, राजनीतिक असर भी दूरगामी होगा। निचली अदालतों द्वारा अधिकतम सजा सुनाए जाने का कारण न बताए जाने के आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की दोषसिद्धि और सजा पर रोक लगाते हुए जो राहत दी है उसके बाद ही उनकी सांसदी बहाल हो पाई है। उनके अगला लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर भी संशय के बादल छंट गए हैं।
मोदी सरनेम को लेकर राहुल गांधी के बयान पर सूरत की अदालत में यह मानहानि मुकदमा भाजपा के विधायक एवं पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने दायर किया था। हालांकि राहुल के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने पूर्णेश के मोदी सरनेम की वास्तविकता पर ही सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा कि यह सरनेम किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं है। मसलन, सोहराब मोदी पारसी थे, सैयद मोदी मुसलमान, जबकि ललित मोदी मारवाड़ी समुदाय से आते हैं। तकनीकी दृष्टि से यह सही है कि राहुल को सूरत की अदालत ने दो वर्ष की सजा सुनाई और लोकसभा सचिवालय ने नियमानुसार तत्काल उनकी सदस्यता समाप्त कर दी। उनसे आनन-फानन में ही सांसद वाला बंगला भी खाली करा लिया गया। इस पूरे प्रकरण के मूल में राजनीति को देख-समझ पाना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। इसलिए माना जाना चाहिए कि अब तक बचाव की मुद्रा में चल रही कांग्रेस राहुल को इस राहत पर और भी आक्रामक होगी। कांग्रेस, सत्ता पक्ष की ओर से राहुल समेत नेहरू परिवार को निशाना बनाए जाने को मुद्दा बनाते हुए मतदाताओं की सहानुभूति हासिल करना चाहेगी।
यह बात और है कि भाजपा इसे विशुद्ध न्यायिक प्रक्रिया बताते हुए राहुल के विरुद्ध लंबित अन्य मानहानि मामले भी गिनाने से नहीं चूकेगी। संकेत साफ है- संसद से सडक़ तक सत्तापक्ष और विपक्ष में टकराव और बढ़ेगा ही।
यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि न सिर्फ राहुल, बल्कि कांग्रेस का मनोबल सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत से सातवें आसमान पर है, जिसका असर भाजपा पर ही नहीं, उसके खिलाफ मोर्चाबंदी में जुटी विपक्षी एकता पर भी पड़ेगा। भाजपा शुरू से ही मोदी बनाम राहुल के चुनावी मुकाबले को अपने अनुकूल बताती रही है, पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा के बाद राजनीतिक परिस्थितियां वैसी नहीं रह गई हैं। भारत जोड़ो यात्रा से न सिर्फ राहुल गांधी की छवि में उभार आया है बल्कि पस्तहाल कांग्रेस संगठन में उत्साह का संचार भी हुआ है। गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन भले ही शर्मनाक रहा, पर हिमाचल प्रदेश और फिर कर्नाटक में भाजपा से सत्ता छीनने के बाद देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का पुराना आत्मविश्वास लौटता दिख रहा है। इस बीच बिना व्यापक एकता के मोदी की भाजपा को नहीं हरा पाने के अहसास के गहराते जाने के बाद विपक्षी एकता की कवायद ने भी गति पकड़ी है। दूसरी ही बैठक में विपक्ष न सिर्फ अपना कुनबा बढ़ाने में कामयाब रहा है, बल्कि अपने गठबंधन का नामकरण भी ‘इंडियन नेशनल डवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस’ करने में सफल रहा, जिसका संक्षिप्त नाम ‘इंडिया’ बनता है। उम्मीद के मुताबिक, इस नामकरण को अदालत में चुनौती भी दे दी गई है।
अपने खेमे में सेंधमारी के बीच भी समूचा विपक्ष एकता की जिस राह पर चल पड़ा है, उसमें कांग्रेस अग्रिम होते हुए भी नेतृत्व की दावेदारी से अभी तक बचती रही है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट से राहत के बाद मीडिया से बातचीत में राहुल ने याद दिलाया कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कांग्रेस का लक्ष्य सत्ता का नेतृत्व करना नहीं, बल्कि देशहित में भाजपा को हराना है। इस बयान के उलट राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि राहुल गांधी की सांसदी बहाली और अगला लोकसभा चुनाव लड़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाने के बाद अब नेतृत्व के मुद्दे पर भी समीकरण बदलेंगे।
कांग्रेस अब भी चार राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में सत्तारूढ़ है। यदि वह इसी साल होने वाले विधानसभा चुनावों में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता बरकरार रखते हुए मध्य प्रदेश में भी सत्ता हासिल कर तेलंगाना में बेहतर प्रदर्शन कर पाती है तो लोकसभा के लिए विपक्षी गठबंधन में न सिर्फ ज्यादा सीटों के लिए उसका दबाव बढ़ेगा, बल्कि चुनाव बाद सरकार बनने की स्थिति में नेतृत्व के लिए भी उसके दावे को नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होगा।
अब तक विपक्षी एकता के सूत्रधार के रूप में नीतीश कुमार नेतृत्व की कतार में आगे समझे जा रहे थे, पर बेंगलूरू बैठक के बाद संदेह और सवाल उठने शुरू हो गए हैं। हालांकि महाराष्ट्र में अपनी पार्टी को ही टूटने से नहीं बचा पाए मराठा क्षत्रप शरद पवार को अब भी कम नहीं आंका जा सकता। ममता बनर्जी व अरविंद केजरीवाल की सत्ता महत्त्वाकांक्षाएं भी छिपी नहीं हैं। ऐसे में, विपक्षी एकता के मुकाबले के लिए अचानक एनडीए का कुनबा बढ़ाने में जुटी भाजपा को उम्मीद है कि नेतृत्व के मुद्दे पर ‘इंडिया’ में बढ़ सकने वाला टकराव उसकी राह आसान कर देगा।