इस सवाल का जवाब आंशिक रूप से लोगों के व्यवहार में छुपा हो सकता है। इसलिए आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी (यूएस) के जॉयदीप भट्टाचार्य ने आइआइएम बेंगलूरु के प्रियम मजूमदार और मेरे साथ एक शोध किया, जिसमें 43 देशों के लोगों ने भाग लिया। हमने इस अध्ययन में प्रायोगिक अर्थशास्त्र का सहारा लिया ताकि जान सकें कि विभिन्न देशों के लोग कोरोना महामारी के विभिन्न चरणों में बीमारी के प्रति कितने व किस प्रकार सचेत थे? दो निष्कर्ष सामने आए। पहला, यह कि जिन देशों में कोरोना महामारी चरम पर है, वहां लोग अधिक बेफिक्र पाए गए और उन्हें अपने ही देश के कोरोना मरीजों की संख्या के बारे में जानकारी नहीं थी। दूसरा, जिन देशों में गंभीर कोरोना संकट है, वे भावी कोरोना पीडि़तों की संख्या का ठीक से अनुमान नहीं लगा पाए। व्यवहारगत अर्थशास्त्र में इसे लंबे समय तक सावधानी के चलते पैदा होने वाली उदासीनता या थकान के रूप में जाना जाता है। ब्रिटेन में यह ब्रेक्सिट के मामले में भी देखा गया है। केवल जागरूकता ही नहीं, इस थकान का असर मनोविज्ञान पर भी देखा जा सकता है। लांसेट में प्रकाशित शोध के अनुसार, लंबे समय तक क्वारंटीन रहने के मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं।
भारत में मई माह में स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा कर दी कि हमें कोरोना वायरस के साथ जीना सीखना होगा। नतीजा यह हुआ कि सामान्य स्थिति की बहाली की ओर तेजी से कदम बढ़ाने वाली गाइडलाइन सामने आईं। जब राजनेता मतदाताओं की संभावित उदासीनता को देख चुनाव प्रचार की शुरुआत का समय तय कर सकते हैं तो फिर नीति निर्धारकों ने लॉकडाउन लागू करते समय इसका आकलन क्यों नहीं किया? यदि लंबे समय तक चलने वाले लॉकडाउन के जनमानस पर पडऩे वाले संभावित प्रभाव के बारे में विचार किया गया होता तो लॉकडाउन काफी बाद में लागू किया गया होता। इससे प्रवासियों को भी परेशानी से नहीं गुजरना पड़ता और उन्हें सही निर्णय के लिए पर्याप्त समय मिल गया होता।
जब भारत में लॉकडाउन की शुरुआत हुई, तब अन्य देशों के नीति-निर्माता लॉकडाउन की रणनीति बनाने में व्यवहारगत बारीकियों को चर्चा में शामिल करना शुरू कर चुके थे। उदाहरण के लिए, यूके सरकार ने मार्च के प्रारंभ में लॉकडाउन लगाने से पहले लॉकडाउन से पडऩे वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव के अध्ययन के आधार पर सांतरित दृष्टिकोण अपनाया। व्यवहार विज्ञान के अन्य विशेषज्ञों ने बाद में इस पर भी सवाल उठाए। मतभेद अलग बात है, जरूरी है कि नीति निर्माताओं और अनुसंधानकर्ताओं के बीच विचार-विमर्श हो ताकि व्यवहारगत पक्ष शामिल करने वाली नीतियां अपनाई जाएं। दुर्भाग्य से भारत में ऐसे विचार-विमर्श का अभाव है। भारत के लॉकडाउन के अच्छे-बुरे परिणामों के सामने आने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के नीति-निर्माता भविष्य में अपनाई जाने वाली नीतियों में ऐसी खामियां नहीं छोड़ेगे।