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कर्ज का जाल: सहूलियत से त्रासदी तक की यात्रा

डॉ. शिवम भारद्वाज, असिस्टेंट प्रोफेसर, जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा

कर्ज के बोझ तले किसी व्यक्ति का स्वयं अथवा परिवार समेत आत्महत्या कर लेने की खबरें पढ़कर मन सिहर उठता है, परंतु अब ऐसी घटनाएं चौंकाती नहीं हैं। त्रासद केवल यह नहीं कि लोग आत्महत्या कर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि समाज ने इसे लगभग स्वीकार कर लिया है- एक 'सामान्य विफलता' के रूप में। ऐसी घटनाएं इतनी नियमितता से सामने आ रही हैं कि हमारी सामूहिक स्मृति से बाहर होती जा रही हैं। एक समय कर्ज केवल आर्थिक निर्णय होता था- खेती, मकान, कारोबार या बच्चों की पढ़ाई के लिए लिया गया एक सोचा-समझा कदम। लेकिन अब वह सहूलियत के नाम पर हर जेब में मौजूद है- क्रेडिट कार्ड, ईएमआई, 'बाय नाउ-पे लेटर' ऐप्स, और आकर्षक ऑफर में लिपटे आसान कर्ज। यह सहूलियत पहले सुविधा लगती है, फिर आदत बनती है, और कई बार जानलेवा हो जाती है। तमाम परिवार के लिए हर महीने की शुरुआत अब महीने की आमदनी और तमाम किस्तों के जाने की गणना वाले तनाव के बीच फंसी होती है। स्कूल की फीस, बच्चों के सपनों का दबाव, बीमारियों के इलाज का खर्च, त्योहारों की खरीदारी, और उसके ऊपर समाज की अनकही अपेक्षाएं—ये सभी मिलकर ऐसा मनोवैज्ञानिक और आर्थिक तनाव पैदा करते हैं जहां आमदनी बार-बार नाकाफी साबित होती है। ऐसे में कर्ज एक 'समाधान' की तरह सामने आता है, लेकिन यही समाधान धीरे-धीरे सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। सुविधा और समाधान के नाम पर आया कर्ज अब मानसिक और सामाजिक कैद का रूप ले लेता है- जहां दिखावे की दौड़, सामाजिक अपेक्षाओं का बोझ और आत्म-सम्मान की दबी चीखें व्यक्ति को भीतर से तोडऩे लगती हैं। आज कर्ज की आदत सिर्फ खरीदारी या सामाजिक प्रदर्शन तक सीमित नहीं रह गई है। तेजी से पैसा बढ़ाने की लालसा भी लोगों को ऐसे जोखिमपूर्ण रास्तों पर ले जा रही है, जहां वे अपनी मेहनत की कमाई को बिना पूरी जानकारी और समझ के दांव पर लगा देते हैं। स्टॉक मार्केट, क्रिप्टोकरेंसी, कमोडिटी ट्रेडिंग (जैसे एमसीएक्स) और हाल के वर्षों में उभरे अनेक निवेश ऐप- ये सब अब महज निवेश के माध्यम नहीं रहे, बल्कि एक नई 'लाइफस्टाइल' और 'ट्रेंड' का हिस्सा बन चुके हैं।

सोशल मीडिया पर दिखती सफलताओं की चमक और 'जल्दी अमीर बनने' का सपना आम लोगों को आकर्षित करता है, पर जब बिना समझे लिए गए निर्णय घाटे में बदलते हैं, तो केवल पैसा नहीं, मानसिक संतुलन भी डगमगा जाता है। नुकसान की भरपाई के लिए फिर से कर्ज लिया जाता है और व्यक्ति एक अंतहीन चक्र में फंस जाता है- जहां केवल थकान, तनाव और निराशा शेष रह जाती है। दरअसल, बात केवल आर्थिक तंगी की नहीं है, बल्कि उस मानसिक स्थिति की है जिसमें व्यक्ति को यह महसूस होता है अथवा महसूस कराया जाता है कि बिना 'अपडेटेड' जीवनशैली के उसकी सामाजिक पहचान अधूरी है। जैसे कि बच्चों का स्कूल एक शैक्षणिक विकल्प नहीं, स्टेटस सिंबल है। शादी-ब्याह और त्योहार अब केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि ऋण प्रायोजित सामाजिक प्रदर्शन बन चुके हैं। जब दिखावा जरूरत बन जाता है, तो खर्च स्वाभाविक रूप से आमदनी से आगे निकल जाता है, और फिर आता है कर्ज, जो खुद को 'सहारा' बताकर दरवाजे पर खड़ा मिलता है- 'प्री-अप्रूव्ड लिमिट', 'जीरो डाउन पेमेंट', और कुछ घंटों में ट्रांसफर होने वाले डिजिटल लोन आदि जैसे कई विकल्पों के रूप में। ये विकल्प पहली नजर में सहूलियत लगते हैं, लेकिन असल में वे मानसिक जाल हैं जिनमें व्यक्ति फंसता चला जाता है। और जब किश्तें देना मुश्किल हो जाता है, तो केवल बजट नहीं, आत्म-सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक संतुलन भी दरकने लगते हैं। अंतत: यह त्रासदी जन्म लेती है- जब व्यक्ति अकेलेपन, शर्म और सामाजिक तुलना के बीच घिरकर कोई भी कठोर कदम उठाने को विवश हो जाता है। दुखद केवल यह नहीं कि लोग आत्महत्या कर रहे हैं। उससे भी अधिक दुखद यह है कि समाज ने इसे 'निजी विफलता' मानकर किनारे कर दिया है। लेकिन यह एक गहरी प्रणालीगत असफलता है- एक ऐसा सामाजिक ढांचा, जो बार-बार व्यक्ति से कहता है- 'और बेहतर दिखो, और आगे बढ़ो', चाहे वह भीतर से टूटता ही क्यों न जाए। विडंबना यह है कि सादगी को 'कमजोरी' और दिखावे को 'सफलता' का पैमाना बनाया जाने लगा है। सामथ्र्य से ऊपर जाने पर ढूंढे जाते हैं आसान ऋण के विकल्प। ऐसे में जब ऋण के नाम पर शोषण की संभावनाएं खुली हों, तो पूरी जिम्मेदारी सिर्फ एक व्यक्ति की विवेकशीलता पर डालना उचित नहीं। फिलहाल इसका कोई तात्कालिक समाधान नहीं है, लेकिन शुरुआत इस स्वीकारोक्ति से हो सकती है कि कर्ज की समस्या अब वित्तीय नहीं रही- यह सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न बन चुकी है। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दिखावे की यह दौड़ कई लोगों को धीरे-धीरे ऐसे निर्णयों की ओर धकेल रही है, जिनसे वापस लौटना कठिन होता है। किसी व्यक्ति की इज्जत उसके खर्च से नहीं, उसकी सादगी और संतुलन से बनती है। हर व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि जो खर्च वह कर रहा है, वह वाकई जरूरत है या सामाजिक भय का परिणाम जोकि उसके जीवन में जहर घोल रहा है।