25 दिसंबर 2025,

गुरुवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

नकारात्मक सोच पर डालें पर्दा

दुराव-छिपाव हमेशा भय से किया जाता है और वह तब किया जाता है जब किसी पर भरोसा न हो। महिलाओं को पर्दे की ओट में रखना क्या उनके वजूद पर चोट नहीं है? आखिर नारी के स्वाभिमान की परवाह किसे है?

2 min read
Google source verification

जयपुर

image

Sunil Sharma

Sep 24, 2018

opinion,work and life,rajasthan patrika article,

work and life, opinion, rajasthan patrika article

- नजमा खातून, शिक्षक

नारी को घूंघट या पर्दे में रखना यानी किसी अमर्यादित पुरुष की निगाहों के गुनाहों की सजा किसी निर्दोष स्त्री को देने की परिपाटी तो समाज में सदियों से है। इक्कीसवीं सदी के आधुनिक और गतिशील समाज में भी ऐसी पाबंदियां जब नजर आती हैं तो चिंता होती है। एक ओर लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी के नाम पर पंचायत और निकायों में महिलाओं को आरक्षण दिया जाता है तो दूसरी ओर निर्वाचित होने के बाद ये महिलाएं लंबे घूंघट में नजर आती हैं।

जब वे अपना घूंघट तक ऊंचा करने का हक हासिल नहीं कर पातीं तो गांव-शहर के विकास में अपनी भूमिका का निर्वाह कैसे करती होंगी, इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। आज भी उत्तर भारत में अनेक समुदायों में विशेष तौर से गांवों में पर्दा प्रथा मजबूती से जड़ें जमाएं बैठी है।

लंबा घूंघट डाले वे काम करने को मजबूर हैं। उन्हें इस तरह दबा दिया गया है कि वे अपनी असहजता को शब्दों में भी अभिव्यक्त नहीं कर सकतीं। यही वजह है कि पर्दे के प्रतिबंध के चलते योग्य और प्रतिभावान महिलाएं अपने व्यक्तित्व को खो देती हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी संस्कारी स्त्री के खुले मुंह या खुले सिर रहने से उसकी मर्यादा भंग हो जाएगी?क्या सिर्फ पर्दे का बंधन किसी स्त्री को दुराचार का शिकार होने से रोक सकता है? आए दिन जिस तरह की खबरें देखने-सुनने को मिलती हैं, उनमें घर की चारदीवारी में सीमित रह पर्दे में रहने वाली स्त्रियां भी पुरुष रिश्तेदारों द्वारा यौन शोषण की शिकार होती हैं।

दुराव-छिपाव हमेशा भय से किया जाता है और तब किया जाता है जब किसी पर भरोसा न हो। महिलाओं को पर्दे की ओट में रखना क्या उनके वजूद पर चोट नहीं है? आखिर घूंघट की ओट में घुटती सांसें और पर्देदार अंधेरों में खोते नारी के स्वाभिमान की परवाह किसे है? क्या यह उन कसूरवार मर्दों का कुबूलनामा है कि हमें नैतिक मूल्यों का भान नहीं और आप अपने आप को हमसे महफूज रखने के लिए हमसे पर्दा कर लीजिए। यदि ऐसा है तो फिर घूंघट ऐसे दुराचारी क्यों न रखें?

हमें इस तर्क-वितर्क में नहीं उलझना है कि पर्दा प्रथा कब, क्यों और कैसे आई? मकसद समूचे पुरुष समुदाय पर लांछन लगाने का भी नहीं। सवाल यही है कि आखिर अपने दिल-दिमाग की नकारात्मक सोच पर पर्दा डालने का साहस इस पुरुष प्रधान समाज में कब आएगा? परिवर्तन के इस दौर में यदि हमने खुद को नहीं बदला तो यह रूढि़वादिता समाज को काफी पीछे ले जाएगी।