हर संसद सत्र से पहले विपक्ष कुछ मुद्दों को लेकर सवाल उठाता है और फिर संसद सत्र की शुरुआत से वे ही मुद्दे हंगामे और बहिर्गमन का कारण बनते हैं। हमारा लोकतंत्र फिर हंगामे से ही शर्मसार नहीं होता है। हाल में सम्पन्न महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों पर एक-दो राजनीतिक दलों ने इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की विश्वसनीयता पर फिर सवाल उठाकर लोकतांत्रिक प्रणाली को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है। दुनिया हमारे लोकतंत्र की प्रशंसा करती है लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए ईवीएम पर सवाल उठाना कहां की समझदारी है। निस्संदेह ऐसे सवालों से हमारा लोकतंत्र कमजोर नहीं होता हो लेकिन क्या हम इन सवालों से बच नहीं सकते हैं? क्या हर बार संसद की कार्यवाही नहीं चलाने देने से लोकतंत्र मजबूत होता है? इन सवालों के हल किसी और को नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक दलों को ही तलाशने होंगे। अमरीकी अदालत में अडाणी समूह पर लगे आरोप गंभीर हैं पर उसके लिए सरकार को घेरने के दूसरे उपाय भी हैं। संसद में ऐसे गंभीर मुद्दे पर चर्चा होनी चाहिए पर इसके लिए हंगामा करना जरूरी नहीं।
देश आज बेरोजगारी, महंगाई और दूसरे मुद्दों से भी जूझ रहा है। क्या संसद के समय का उपयोग इन मुद्दों पर चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए? संसद के दोनों सदनों में आजकल काम कम और शोरगुल अधिक हो रहा है। जनता अपने प्रतिनिधियों से अपेक्षा करती है कि सदन में वे अपने क्षेत्र और देश के लिए विकास की चर्चा करें। भारत के लोकतंत्र की प्रशंसा दूसरे देश करते हैं तो ये प्रशंसा सरकार ही नहीं, समूचे देश की होती है। सदन की शुरुआत से पहले हर बार सर्वदलीय बैठक होती है पर उसमें भी समाधान निकलता नजर नहीं आता। सदन चलाने की जिम्मेदारी सरकार की अधिक है। इसलिए मणिपुर और संभल हिंसा पर चर्चा को भी उसे प्राथमिकता से लेना चाहिए। साथ ही विपक्ष को रचनात्मक तरीके से विरोध जाहिर करना चाहिए न कि शोरगुल व बहिर्गमन।