हमारे मंत्रियों और अफसरों को तब भी शर्म नहीं आई जब स्वच्छता रैंकिंग में जयपुर ही नहीं, पूरा राजस्थान फेल हो गया। लगातार ऐसा हो रहा है पर सब चिकने घड़े हो रहे हैं। शहरवासी जब इंदौर और भोपाल के अच्छी रैंकिंग पर आने की बात सुनते हैं तो शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं। पर मंत्री और अफसर कलंक के टीके को ही विजय का तिलक मानकर इतरा रहे हैं।
जयपुर में सफाई का ठेका उठाने वाली कंपनी या उसके कर्मचारियों की हड़ताल आए दिन का तमाशा बन चुकी है। जनता से पैसे वसूलने में कोई कसर नहीं है, फिर वेतन या कंपनी को भुगतान की समस्या क्यों होती है? कहने को दो नगर निगम बना दिए गए हैं पर इससे शहर का भला होने के बजाए मुख्य समस्याएं दोगुनी हो गईं। रीढ़-विहीन अफसर साहसिक निर्णय नहीं ले पाते। मंत्रियों और विधायकों के इशारे पर काम करने वाले कठपुतले बनकर रह गए हैं।
कमीशनखोरी और पैसे खाकर अतिक्रमण करवाने के मामले ऐतिहासिक ऊंचाइयों को छू रहे हैं।
शहर के पार्षद तो जैसे कमेटियों के पद पाकर ही प्रसन्न हो गए हैं। वार्ड में एकाध सड़कें बनवा दीं तो जैसे गढ़ जीत लिया। रोजमर्रा की समस्याओं से उनका कोई लेना-देना नहीं रहा।
आज राजधानी के हर गली-मोहल्ले में लगे कचरे के ढेर शहर का ‘गौरव’ बढ़ा रहे हैं। आम लोगों का सड़कों से गुजरना तक मुहाल हो गया है, पर जिम्मेदारों ने आंख-नाक-कान सब बंद कर रखे हैं। जब राजधानी के ये हाल हैं तो प्रदेश के अन्य शहरों की क्या दशा होगी, कल्पना की जा सकती है। एक ही उपाय रह गया है नागरिक स्वयं झाड़ू-तगारी लेकर सड़कों पर निकल जाएं। शायद किसी का जमीर जाग जाए।
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