इन चुनावों में जो एक बात स्पष्ट थी, वह यह कि केरल को छोड़कर सभी चार राज्यों में भाजपा बनाम अन्य सभी विपक्षी दल का वातावरण था। सबने मिलकर रणनीति बनाई और मिलकर जोर लगाया। हालांकि भाजपा प. बंगाल और तमिलनाडु में अपनी पराजय को भी जीत के रूप में देख रही है। उसके नेताओं का कहना है कि प. बंगाल में तीन सीट से 75 सीट तक पहुंच जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। तमिलनाडु में उसने अन्नाद्रमुक (ए.आइ.ए.डी.एम.के.) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और स्वयं ने 20 सीटों पर ही प्रत्याशी खड़े किए थे।
भाजपा कुछ भी कहे, चुनाव के नतीजे उसके बड़े नेताओं की ओर से किए जा रहे दावों के उलट हैं। प. बंगाल और तमिलनाडु में चुनाव जीतने वाले तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक भले ही जीत का श्रेय स्वयं लें, पर कुछ कारण ऐसे भी रहे, जिन्होंने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को सत्ता से बाहर रखने में बड़ी भूमिका निभाई। कोरोना महामारी के विकराल फैलाव के बावजूद चुनाव कराना, बड़ी-बड़ी रैलियां करना, बड़े-बड़े दावे करना और चुनाव अभियान में असंयमित भाषा का इस्तेमाल करना ऐसे ही कुछ कारण रहे।
प. बंगाल में ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की कई रैलियों के बावजूद जीत हासिल की तो इसका बड़ा श्रेय पिछले छह महीनों में उनकी बदली हुई रणनीति को जाता है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार उन्होंने समझ लिया था कि आधी आबादी यानी महिलाओं का भरोसा जीत लिया जाए तो उनकी राह बेहद आसान हो जाएगी। इसी को ध्यान में रखते हुए ‘स्वास्थ्य साथी कार्ड’ (जिसमें महिला को परिवार का मुखिया माना गया), ‘कन्या श्री योजना’ (जिसमें बालिकाओं को स्कॉलरशिप, ग्रेजुएशन के लिए 25 हजार नकद जैसे प्रावधान हैं), विधवा पेंशन जैसी योजनाओं को तेजी से क्रियान्वित किया गया। ‘द्वारे सरकार’ योजना के अंतर्गत जगह-जगह शिविर लगाकर अंतिम छह महीनों में महिलाओं के खातों में योजनाओं की राशि पहुंचाई गई। इसका नतीजा यह हुआ कि चुनाव दंगल में महिलाओं की सहानुभूति ममता बनर्जी के साथ हो गई। इन महिलाओं ने जाति, धर्म जैसे मुद्दों की बजाय विकास योजनाओं को ज्यादा महत्व दिया।
इससे पहले ममता बनर्जी ने सभी विपक्षी दलों को भाजपा के खिलाफ एकजुट किया। कांग्रेस ने तो लगभग अपने आप को मैदान से हटा ही लिया। कांग्रेस और वामदलों को जाने वाले अल्पसंख्यक मत एकजुट होकर तृणमूल कांग्रेस को मिले। इसके साथ ही बड़ी संख्या में टिकट बदले गए और नए चेहरों को उतारा गया ताकि सत्तारूढ़ दल विरोधी (एंटी इंकम्बेंसी) भावनाओं को दबाया जा सके। रही-सही कसर टीएमसी छोड़कर भाजपा में गए नेताओं ने पूरी कर दी। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं में कहीं न कहीं असंतोष भीतर ही भीतर पनप गया। नंदीग्राम से ममता स्वयं चुनाव लड़ रही थीं। भाजपा की काफी ऊर्जा उन्हें हराने में लग गई। हालांकि ममता स्वयं चुनाव हार गईं, पर इस हार से उनके मुख्यमंत्रित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की हार के पीछे दस साल की सत्ता विरोधी लहर और एम.के. स्टालिन जैसा दमदार चेहरा न होना रहा। पिछले दस साल में अन्नाद्रमुक सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे। कमल हासन और श्रीमोहन की पार्टियों ने भी वोट बांट कर नुकसान पहुंचाया। चुनाव अभियान के पार्श्व में चला ‘भाजपा बनाम तमिलनाडु’ मुद्दा भी अन्नाद्रमुक की हार की वजह बना। अन्नाद्रमुक के साथ चुनाव लड़ते हुए भाजपा ने तमिलनाडु में 20 प्रत्याशी ही मैदान में उतारे थे।
केरल में सीपीआइएम के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा का मुकाबला कांग्रेसनीत संयुक्त मोर्चे से हुआ। इसमें वाम मोर्चे की जीत हुई। इस राज्य में भाजपा का जोर-शोर से प्रवेश का सपना पूरा नहीं हो पाया। असम और पुडुचेरी में भाजपा जीत तो गई, पर जीत की खुशी को प. बंगाल व तमिलनाडु की हार ने दबा दिया। असम में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनवाल की छवि ने भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका निभाई।
परिणामों का एक पहलू यह भी रहा कि बड़े राजनीतिक दलों पर क्षेत्रीय क्षत्रप भारी पड़े। शायद ‘बड़ों’ ने ‘छोटों’ की क्षमताओं को कम करके आंका। उनका आकलन का तरीका कोई भी हो, जब तक वे जनता के नजरिए से देखना नहीं सीखेंगे, उनकी बड़ी से बड़ी रणनीति भी टिक नहीं पाएगी।