ताजिक, तुर्क और उज्बेक जातियां अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हैं जो तालिबान के धार्मिक कट्टरपंथ से सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। कजाखिस्तान और किर्गिज गणराज्य सहित मध्य एशियाई गणराज्य अपने इलाकों में कट्टरपंथी इस्लामवाद, आतंकवाद और मादक पदार्थों के निर्यात से डरे हुए हैं। भारत न केवल इन देशों की चिंताओं को समझ रहा है बल्कि इन चिंताओं को दूर करने के प्रयासों में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी भी कर रहा है।
विदेश मंत्रियों के संयुक्त बयान में तालिबान से एक समावेशी और प्रतिनिधि सरकार बनाने, महिलाओं और अल्पसंख्यक अधिकारों का सम्मान करने, आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी का मुकाबला करने और अफगानिस्तान को मानवीय सहायता प्रदान करने का आग्रह किया गया है।
हालांकि इस क्षेत्र के सभी देश अपने हितों के हिसाब से काबुल में तालिबानी शासन के साथ अपने रिश्तों की दिशा तय करने में लगे हैं। यही कारण है कि अफगानिस्तान के मुद्दे पर कैसे आगे बढऩा है, इस पर अभी तक पूर्ण सहमति नहीं बन पा रही है।
नवंबर में भी दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की एक बैठक में इन साझा सुरक्षा चिंताओं पर ध्यान आकर्षित किया गया था, जिसमें पांचों मध्य एशियाई देशों के साथ ईरान और रूस ने भी भाग लिया था। तालिबान के प्रति उज्बेकिस्तान का रवैया सुलह भरा है, जबकि ताजिकिस्तान का दृष्टिकोण टकराव वाला है, क्योंकि ज्यादातर ताजिकों के तालिबान विरोधी नॉर्दर्न एलायंस के साथ सीमा-पार गहरे संबंध हैं। इसके अलावा, सभी मध्य एशियाई देश अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर पाकिस्तान के साथ भी निरंतर संपर्क में हैं।
भारत में सम्मेलन के दौरान इस्लामाबाद में भी 57 सदस्यीय इस्लामिक सहयोग संगठन का विशेष सत्र हुआ। इसमें अमरीका, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। सम्मेलन में इस्लामिक डवलपमेंट बैंक के तत्वावधान में एक ‘ट्रस्ट फंडÓ स्थापित कर अफगानिस्तान की मदद करने का फैसला किया गया। आम अफगान नागरिकों के लिए यह कितना कारगर होगा यह तो वक्त बताएगा, पर यह पाकिस्तान के लिए कूटनीतिक सक्रियता दिखाने का एक मंच जरूर साबित हुआ।
बहरहाल, मध्य एशियाई देश मुस्लिम बहुल होने के बावजूद भारत के साथ अपने संबंधों को आज भी उतनी ही अहमियत देते हैं जितनी कि वे कभी सोवियत संघ का हिस्सा होते हुए देते थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद अस्तित्व में आए इन गणराज्यों पर भारत का ध्यान जरूर कुछ कम हुआ, लेकिन बीते दस सालों में भारतीय विदेश नीति-निर्धारकों ने इनके महत्त्व को समझा है। कारण, ऊर्जा और व्यापार गलियारों के रूप में इन देशों का बढ़ता हुआ रणनीतिक महत्त्व है। दिल्ली में जारी संयुक्त बयान में पारदर्शिता, व्यापक भागीदारी, स्थानीय प्राथमिकताओं, वित्तीय स्थिरता और संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के प्रति सम्मान के आधार पर कनेक्टिविटी पर जोर दिया गया।
अब समय आ गया है कि मध्य एशियाई देशों को चीन के साथ सामरिक प्रतिस्पर्धा का एक अखाड़ा न मानते हुए भारत उनके साथ नए सिरे से व्यापक संबंध विकसित करने पर जोर दे। अगले साल गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में इन पांचों देशों के नेताओं को निमंत्रण एक नई शुरुआत करने का अवसर होना चाहिए।