जिसकी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं, उसके जीवन में चिंताओं का कहीं कोई स्थान नहीं रहता तथा उसका मन भी उल्लासपूर्ण हो जाता है। जो किसी इच्छा या आकांक्षा के बिना प्रभु का स्मरण करता है, उसे आत्म-साक्षात्कार का लाभ मिलता है। स्वभाव में रहना ही सच्ची आध्यात्मिकता है। जैसे ही मानवी चेतना अंतर्मुखी होती है, स्वयं में निहित परिपूर्णता, सनातनता और नित्यता का अनुभव सहज, प्रशान्त और आनन्द में परिवर्तित होने लगता है। अत: स्वाभाविक जीवन अभ्यासी बनें। अपने स्वभाव को प्रकृति के अनुकूल बनाएं। सुख, शांति और प्रेम से जीवन जीना ही हमारा स्वभाव है।