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दहेज कानून की सीमा से पार आत्ममंथन की आवश्यकता

दहेज प्रथा एक सामाजिक समस्या है और किसी भी सामाजिक समस्या का निदान समाज के भीतर से ही ढूंढा जा सकता है। दहेज के पीछे कोई एक कारण नहीं, बल्कि अनेक कारकों का समुच्चय है, जिन पर गहन आत्ममंथन की आवश्यकता है।

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जयपुर

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Opinion Desk

Dec 26, 2025

डॉ. ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अजमल बेग मामले में हाल ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय खंडपीठ द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-ए और 304-बी तथा दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2/4 के तहत प्रतिवादियों को बरी करने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते हुए कहा कि दहेज की व्यापक समस्या, संबंधित कानूनों की अप्रभावीता तथा धारा 498-ए और दहेज निषेध अधिनियम के दुरुपयोग के बीच उतार-चढ़ाव न्यायिक तनाव पैदा करता है जिसका तत्काल समाधान आवश्यक है। इसलिए दहेज की बुराई को जड़ से खत्म करने के लिए सभी संबंधित पक्षों- विधायिका, कानून प्रवर्तन, न्यायपालिका, नागरिक समाज संगठनों आदि के ठोस प्रयासों को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय ने निर्देश दिए।

न्यायालय ने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि राज्यों में दहेज निषेध अधिकारियों की नियुक्ति हो क्योंकि दहेज निषेध कानून में इसका स्पष्ट रूप से प्रावधान है। न्यायालय ने यह भी माना कि राज्यों और केंद्र सरकारों को भी इस ओर विचार करना चाहिए कि शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम में आवश्यक परिवर्तन किए जाएं, जिससे इस संवैधानिक सिद्धांत को सुदृढ़ किया जा सके कि विवाह के पक्षकार एक-दूसरे के समान होते हैं और उनमें से कोई भी दूसरे के अधीन या अधीनस्थ नहीं है- जैसा कि विवाह के समय धन अथवा वस्तुओं के लेन-देन के माध्यम से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिए किए जा रहे प्रयासों पर वास्तविक और स्थायी प्रभाव सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि भावी पीढ़ी अर्थात् आज के युवाओं को इस बुराई के प्रति जागरूक किया जाए और उन्हें इससे दूर रहने की आवश्यकता के बारे में शिक्षित किया जाए। न्यायालय के यह दोनों ही निर्देश बहुत महत्वपूर्ण है।

पहले तो यह है कि राज्यों में दहेज निषेध अधिकारियों की नियुक्ति हो। उल्लेखनीय है कि अंकित सिंह और अन्य तीन विपक्षी पक्ष बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 23 मई 2024 को टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह न्यायालय देख रहा है कि जिन मामलों में दहेज के आरोप लगाए जा रहे हैं, उनकी जांच पुलिस द्वारा की जा रही है, दहेज निषेध अधिकारी द्वारा नहीं… दहेज निषेध अधिकारी को निवारक और उपचारात्मक उपाय (विवाह को बचाने के लिए) करने का अधिकार है और वह इस संबंध में आदेश पारित कर सकता है, जो पुलिस को कानून के तहत नहीं दिया गया है। उच्चतम न्यायालय और देश के विभिन्न उच्च न्यायालय इस विषय पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं कि देशभर की राज्य सरकारें दहेज निषेध अधिकारियों की नियुक्तियों को लेकर संवेदनशील नहीं है और दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु कि शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बदलाव करके संवैधानिक सिद्धांत को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।

निश्चित रूप से यह आवश्यक है, ऐसा इसलिए भी क्योंकि दहेज प्रथा एक सामाजिक समस्या है और किसी भी सामाजिक समस्या का निदान समाज के भीतर से ही ढूंढा जा सकता है। दहेज के पीछे कोई एक कारण नहीं, बल्कि अनेक कारकों का समुच्चय है, जिन पर गहन आत्ममंथन की आवश्यकता है। अक्सर दहेज प्रताडऩा के मामलों में यह कहा जाता है कि विवाह के बाद दहेज की मांग शुरू हुई। किंतु यह धारणा अधूरी सच्चाई को प्रस्तुत करती है। दहेज मांगने की प्रवृत्ति अचानक उत्पन्न नहीं होती। विवाह तय होने के क्षण से ही लालच के संकेत सामने आने लगते हैं। 'हमें कुछ नहीं चाहिए, आप जो देना चाहें अपनी बेटी को दें' जैसे कथन वास्तव में दहेज की अप्रत्यक्ष मांग होते हैं। यह केवल औपचारिक विनम्रता नहीं, बल्कि एक चेतावनी होती है कि यह परिवार भविष्य में और अधिक अपेक्षाएं रख सकता है। ऐसी चेतावनियों की अनदेखी करना अपनी बेटी को असुरक्षित भविष्य की ओर धकेलने जैसा है। अब समय आ गया है कि हम आत्मावलोकन करें कि कहीं हम अनजाने में अपनी ही बच्चियों के जीवन को खतरे में तो नहीं डाल रहे। बेटियां पराया धन नहीं हैं, वे परिवार का उतना ही अभिन्न हिस्सा है जितना कि बेटे। गलत और असुरक्षित परिवार में विवाह करने से कहीं अधिक आवश्यक यह है कि बेटियों को आत्मनिर्भर बनाया जाए। दहेज के लिए धन एकत्रित करने की मानसिकता का परित्याग कर यदि वही संसाधन उनकी शिक्षा, कौशल और आत्मनिर्भरता में निवेश किए जाए तो यह न केवल उनके जीवन को सुरक्षित बनाएगा, बल्कि उन्हें एक सम्मानजनक और खुशहाल भविष्य भी प्रदान करेगा।